संयुक्त राष्ट्र ने २०१४ में २१ जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के रूप में मनाने का प्रस्ताव पास किया। १७७ सदस्य देशों ने इसे बिना वोटिंग के मान लिया। ऐसा पहली बार हुआ जब किसी देश की पहल को यूएन असेंबली ने तीन महीने के भीतर मान लिया। इस टिप्पणी के साथ कि ”योग मानव स्वास्थ्य और कल्याण की दिशा में संपूर्ण नजरिया है।ह्ण आज योग इंडस्ट्री ५ लाख करोड़ रुपये का दायरा पार कर चुकी है। भारत में इसका आकार ५०,००० करोड़ रुपये के आसपास है। केंद्र की मेक इन इंडिया रिपोर्ट के मुताबिक, करीब ५.३२ लाख करोड़ की इस ग्लोबल इंडस्ट्री में अकेले अमेरिका की हिस्सेदारी १.१७ लाख करोड़ रुपये से ज्यादा है। वहां ३ करोड़ ६० लाख से ज्यादा लोग योग करते हैं। योग की इतनी लोकप्रियता और स्वीकार्यता बेवजह नहीं है। शरीर और मन पर पडऩे वाले इसके पॉजिटिव असर ने बाकायदा वैज्ञानिकों का ध्यान अपनी तरफ खींचा है।
धर्म और अध्यात्म
जर्मनी की डॉ.डागमार वूयास्तिक भारतविद्या (इंडोलॉजी)में डॉक्टरेट हैं। वह भारत की पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों पर रिसर्च कर रही हैं। यूरोपीय संघ की वैज्ञानिक शोध परिषद ने उन्हें १४ लाख यूरो का फंड दिया है। उनकी तीन सदस्यों वाली टीम २०१५ से 9औषधि, अमरत्व और मोक्ष“ नाम के प्रॉजेक्ट पर काम कर रही है। यूरोपीय संघ चाहता है कि इस विषय की वैज्ञानिक विवेचना की जाए। दुनिया भर में योग का उपयोग शारीरिक और मानसिक बीमारियों से निपटने के लिए हो रहा है। बड़ी बात यह कि योग में दिलचस्पी इन पांच सालों में ही नहीं बढ़ी है। अमेरिका और यूरोप में पिछले २० – २५ सालों में इसने लोगों के दिलोदिमाग में अपनी जगह बनाई है। फिर चाहे यह योग के रूप में हो या इसी के एक रूप ‘माइंडफुलनेस“ के रूप में।
माइंडफुलनेस पश्चिम में जीवन का एक अहम हिस्सा बन चुकी है। इसमें चित्त को शांत करने की प्रैक्टिस की जाती है। मन को अतीत के विचारों से हटाकर एक जगह केंद्रित किया जाता है। चेतना को जगाकर मन में चल रही हलचल का गवाह बना जाता है, उसे अनुभव किया जाता है। सांस और शारीरिक संवेदनाओं के बारे में जागरूकता को बढ़ाया जाता है। जगह-जगह आपको इसके ट्रेनिंग सेंटर दिख जाएंगे। और गौर कीजिए, इसे धार्मिक उपक्रम की तरह नहीं, शारीरिक और मानसिक क्रिया के तौर पर अपनाया गया है। यह मेडिटेशन के बहुत करीब है।
इधर, भारत में २१ जून की तारीख करीब आते ही यह बहस जोर पकड़ लेती है कि योग हिंदू धर्म से जुड़ा उपक्रम है, इसलिए सारे धर्म इसे नहीं अपना सकते। तर्क दिया जाता है कि योग के एक हिस्से प्राणायाम में ओम का उच्चारण जरूरी है, इसलिए हिंदू धर्म के अलावा दूसरे धर्म ऐसा नहीं कर सकते।
धर्म की कोई मान्य परिभाषा नहीं है। इसके एक पहलू पर मूल सहमति है कि यह जीने का तरीका है। कुछ नियम हैं, अनुशंसाएं हैं जो समाज को जीने की दिशा देते हैं। अलग-अलग धर्म हैं इसलिए अलग-अलग नियम हैं। अध्यात्म इससे इस मायने में अलग है कि इसे खुद को जानने – समझने की इच्छा और तलाश के उपक्रम के रूप में देखा जाता है। लेकिन योग का विस्तार धर्म और अध्यात्म दोनों में है। योग की सबसे प्रचलित परिभाषा पतंजलि योग सूत्र की रही है। पतंजलि व्यापक तौर पर योग दर्शन के संस्थापक माने जाते हैं। इनका योग बुद्धि के नियंत्रण की प्रणाली है। योग को उन्होंने चित्त की वृत्ति का निरोध कहा है। यानी मन की चपलता को बांधना/साधना। इसके अष्ठांग यानी आठ अंग सुझाए हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा (एकाग्रता), ध्यान और समाधि। योग को शरीर, मन और आत्मा के जोड़ के रूप में भी प्रचारित किया जाता है।
यह सही है कि योग दिवस पर जो योग कराया जाता है, उसमें मानसिक पहलू से ज्यादा जोर शारीरिक व्यायाम पर ही होता है। मानसिक क्रिया यानी मेडिटेशन पर बहुत कम बात होती है, जबकि इसके बगैर योग की कल्पना अधूरी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में कहा था- योग भारत की प्राचीन परंपरा का अमूल्य उपहार है। यह दिमाग और शरीर की एकता का प्रतीक है, मनुष्य और प्रकृति के बीच सामंजस्य है, विचार, संयम और संतुष्टि प्रदान करने वाला है और स्वास्थ्य तथा भलाई के लिए समग्र दृष्टिकोण को प्रदान करने वाला है। यह व्यायाम नहीं, अपने भीतर एकता की भावना, दुनिया और प्रकृति की खोज का विषय है।
योग को धार्मिक उपक्रम समझने के पीछे एक वजह यह हो सकती है कि इसे उस पार्टी की सरकार में ज्यादा प्रमोट किया गया, जिसका दर्शन हिंदुत्व पर टिका है। लेकिन मानसिक शांति और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए दुनिया भर में इसका उपयोग वर्षों से हो रहा है। और अगर किसी को लगता है कि योग से उसे शारीरिक, मानसिक या मनोवैज्ञानिक लाभ हो रहा है तो इसमें बुराई क्या है? क्यों इसे धर्म या राजनीति के चश्मे से देखा जाए?
सर्व स्वीकार्यता
धर्म का मूल वैसे भी अनुशासित जीवन पद्धति है और योग अनुशासन सिखाता है। अगर यह लोकप्रिय हो रहा है तो अपने असर के कारण हो रहा है, किसी राजनीतिक या धार्मिक प्रभाव के कारण नहीं। आज दुनिया भर में योग पर कार्यक्रम होंगे। योगासन करते वीवीआईपीज की तस्वीरें दिखेंगी। सैकड़ों मुल्क अगर एक दिन, एक ही क्रिया में शामिल होंगे तो यह योग की स्वीकार्यता का ही प्रमाण होगा। कोई चीज इतने व्यापक स्तर पर स्वीकार्य तभी हो पाती है जब उससे सभी को कुछ न कुछ मिल रहा हो। योग ने दुनिया को शारीरिक, मानसिक जागृति के मंच पर एक सूत्र में पिरोया है। इसका खुले दिल से स्वागत किया जाना चाहिए।