राहुल गांधी को मनाने की सारी कोशिशें नाकाम रहीं। उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी संभालने से साफ मना कर दिया और पार्टी से एक महीने में नया अध्यक्ष चुन लेने को कहा। उन्होंने पार्टी को गांधी परिवार के सहारे रहने की मानसिकता से मुक्त करने की बात भी कही है। सुनने में अच्छा लगता है कि कांग्रेस के सर्वमान्य नेता ने पराजय की जिम्मेदारी लेकर इस्तीफा दिया और उस पर अड़े रहे। मगर सच यही है कि २ मई को जब कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक हुई थी तो उसमें राहुल गांधी ने हार के लिए वहां उपस्थित नेताओं और मुख्यमंत्रियों को जवाबदेह ठहराया था। प्रियंका वाड्रा ने कहा था कि कांग्रेस की हत्या करने वाले इसी कमरे में मौजूद हैं। जो भी बड़े नेता अकेले या समूह में राहुल गांधी से मिलने आए, उन सबके प्रति उन्होंने कठोर शब्दों में नाराजगी प्रकट की।
भटकी हुई रणनीति
बहरहाल, कांग्रेस का अध्यक्ष कौन होगा या होना चाहिए इसके जवाब के लिए हमें देखना होगा कि इस समय अध्यक्ष के रूप में उसे कैसा व्यक्तित्व चाहिए। सबसे पहले तो वह ऐसा व्यक्ति हो, जो समझ सके कि उसके सामने २०१४ में अस्तित्व का जो संकट पैदा हुआ वह २०१९ में ज्यादा गहरा हुआ है। दो, वह इतना दूरदर्शी हो कि संकट को सही परिप्रेक्ष्य में समझे। तीन, राजनीति की बदलती हुई धारा को देख पाए। चार, जनता या मतदाताओं के बदलते मिजाज को समझ सके। पांच, उसके अंदर यह क्षमता हो कि जनता की अपेक्षाओं के अनुरूप पार्टी के विचार एवं संगठन को बदल सके। नए कांग्रेस अध्यक्ष के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह होगी कि वह पार्टी को इस तरह से वैचारिक चेतना से लैस करे जिससे लगे कि वह आम भारतीय जनता की सोच को अभिव्यक्त कर रहा है। उसे संगठन को एक नया रूप देना होगा, एक नई चमक देनी होगी। पार्टी प्रेजिडेंट का व्यक्तित्व भी प्रभावशाली होना चाहिए। उसमें सही सोच के साथ-साथ भाषण देने यानी अपनी बात को प्रभावी ढंग से रखने की क्षमता होनी चाहिए। राजनीति में वक्तृत्व कला का बहुत महत्व है। कांग्रेस के भावी अध्यक्ष के सामने नरेंद्र मोदी और अमित शाह जैसे वक्ता हैं, जिनका उसे मुकाबला करना है। संगठन को ढालने का मतलब है ऐसे योग्य और सक्षम लोगों की टीम बनाना जो प्राण-पण से कांग्रेस का वैचारिक और सांगठनिक पुनर्निर्माण कर सकें। ऐसा हो सके तो धीरे-धीरे कांग्रेस राष्ट्रीय राजनीति में एक बार फिर निर्णायक भूमिका में आ सकती है। समस्या यह है कि पिछले साढ़े तीन दशकों में नेहरू-गांधी परिवार के प्रत्यक्ष या परोक्ष वर्चस्व के कारण कांग्रेस के पास कुछ गिने-चुने व्यक्तियों में से ही अध्यक्ष चुनने का विकल्प रह गया है। राज्यों के सक्षम और स्वाभिमानी नेता इन वर्षों में या तो पार्टी छोड़कर जा चुके हैं या फिर कुछ को हाशिये पर डालकर राजनीति से बाहर हो जाने के लिए मजबूर कर दिया गया है। कांग्रेस की आकाशगंगा में आपको एक भी ऐसा चमकता सितारा नहीं दिखेगा जो उपरोक्त कसौटियों पर खरा उतरता हो।
अगर किसी को अध्यक्ष बना भी दिया जाए तो उसे काम करने की आजादी चाहिए। क्या आज की परिस्थिति में इतनी आजादी किसी अध्यक्ष और उसकी टीम को मिलने की संभावना है। क्या वह राहुल गांधी, प्रियंका वाड्रा या सोनिया गांधी को कोई निर्देश देने का साहस दिखा सकता है। मान लीजिए, पार्टी का नया नेतृत्व कोई ऐसा बयान जारी करना चाहे जो इस परिवार को मंजूर न हो तो क्या होगा? अगर अध्यक्ष को रोक दिया गया तो वह क्या करेगा। राहुल गांधी ने अपने पत्र में लिखा है, ”मेरे सहयोगियों को मेरा सुझाव है कि अगले अध्यक्ष का चुनाव जल्द हो। मैंने इसकी इजाजत दे दी है और पूरा समर्थन करने के लिए मैं प्रतिबद्ध हूं।ह्ण जब आपने पद छोड़ दिया तो इजाजत किस बात की। कांग्रेस का संकट विचारधारा, नेतृत्व, रणनीति और संगठन चारों का है।
राहुल गांधी ने अपने पत्र में ही विचारधारा को सीमित कर दिया है। उनका कहना है कि ”कोई भी चुनाव स्वतंत्र प्रेस, स्वतंत्र न्यायपालिका और पारदर्शी चुनाव आयोग के बगैर निष्पक्ष नहीं हो सकता है। और यदि किसी एक पार्टी का वित्तीय संसाधनों पर पूरी तरह वर्चस्व हो तो भी चुनाव निष्पक्ष नहीं हो सकता है। हमने २०१९ में किसी एक पार्टी के खिलाफ चुनाव नहीं लड़ा, बल्कि हमने विपक्ष के खिलाफ काम कर रहे हर संस्थान और सरकार की पूरी मशीनरी के खिलाफ चुनाव लड़ा है। हमारे संस्थानों की निष्पक्षता अब बची नहीं है। देश के संस्थानों पर कब्जा करने का आरएसएस का सपना अब पूरा हो चुका है।ह्ण अगर इन बातों को स्वीकार कर लिया जाए तो इसका मतलब यह निकलता है कि कांग्रेस को जनता ने नकारा ही नहीं। वह इन संस्थाओं के कारण हार गई। वायनाड में उन्होंने कहा था कि नरेंद्र मोदी ने झूठ बोलकर और भ्रम फैलाकर जनता का वोट ले लिया है। इस तरह नए अध्यक्ष के लिए विचार, संघर्ष और संगठन का लक्ष्य भी राहुल गांधी ने सीमित कर दिया है। ऐसे में संकट अवसर में कैसे बदलेगा।
पार्टी की रीढ़
मान लिया जाए कि नेहरू-गांधी परिवार से बाहर का कोई नेता कांग्रेस का अध्यक्ष बन जाता है तो सवाल यह उठता है कि क्या यह परिवार पार्टी में उसकी अथॉरिटी स्थापित होने देगा। राहुल कह जरूर रहे हैं कि पार्टी को गांधी परिवार के सहारे की मानसिकता से मुक्त होने की जरूरत है। लेकिन क्या यह संभव है? कांग्रेसी क्या इतनी जल्दी अपनी आदत बदल लेंगे? गांधी-नेहरू परिवार मौजूदा कांग्रेस की रीढ़ है। पार्टी के भीतर आमूल-चूल बदलाव उसकी कोशिशों और उसकी मर्जी से ही आएगा। क्या यह परिवार एक बड़ा त्याग करते हुए खुद को नेपथ्य में रखकर पार्टी का एक जीवंत नेतृत्व और एक उत्साही टीम विकसित कर सकेगा। सच कहा जाए तो अभी असल परीक्षा नेहरू-गांधी परिवार की ही है।