विगत कुछ दिनों पूर्व कोलकाता में एक मेडिकल कालेज में जूनियर डाक्टरों के साथ की गई मारपीट के पश्चात, पहले पूरे पश्चिम बंगाल और फिर पूरे देश में हुई डाक्टरों की हड़ताल और उसके नाटकीय पटाक्षेप ने एक बारगी तो पूरे देश को हिला कर रख दिया। पहले कोलकाता, फिर पश्चिम बंगाल और फिर पूरे देश में डाक्टरों की सांकेतिक हड़ताल ने देश की चिकित्सा सेवा और स्वास्थ्य व्यवस्थाओं को अस्त-व्यस्त करके रख दिया और पूरे देश को ममता की ओर टकटकी बांध कर देखने को विवश कर दिया कि आखिर ममता बनर्जी इस समस्या का हल निकाल भी पाएंगी अथवा नहीं? अगर निकाल भी पाएंगी तो क्या वह हल अब तक के नतीजों से कुछ अलग होगा और राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में वे देश को कोई नई राह इंगित करने में सफलता प्राप्त करेंगी?
देश का सामान्य नागरिक न तो हिंसा के पक्ष में रहा है और न ही उसने कुछ अपवादों को छोड़ कर कभी किसी हड़ताल का समर्थन किया है। यह जरूर है कि इन दोनों दुर्घटनाओं के चलते जनता का यही वर्ग सबसे अधिक प्रभावित हुआ है और सबसे अधिक घाटे में भी यही वर्ग रहता है। इस बार भी यही हुआ और न तो ममता बनर्जी, अपनी जिदों और वोट बैंक की राजनीति के समर्थन के चलते घाटे में रहीं और न ही हड़ताली संवर्ग। दोनों पक्ष अपनी-अपनी नाक बचाने में सफल हुए मगर देश भर में हुई कई मौतें जो इस हड़ताल के चलते हुई हैं। छिटपुट अपवादों को छोड़ दिया जाए तो रोगी की मृत्यु को भगवान की इच्छा और एक सामान्य घटना के रूप में लिया जाता है, उसके लिए डाक्टर को जिम्मेदार नहीं माना जाता। यह भी माना जाता है कि डाक्टर ने तो पूरी कोशिश की पर मरीज की आयु ही खत्म हो चुकी थी, इसलिए उसकी मृत्यु हुई। यह केवल किसी क्षेत्र विशेष की सोच नहीं है, संपूर्ण भारतीय परिवेश और क्षेत्र की सोच है। अस्पतालों में रोज पूरे देश में लाखों रोगी मरते हैं, कोई उफ् तक नहीं करता किन्तु बंगाल के कोलकाता में उस दिन १० जून की रात को आखिर ऐसा क्या हुआ कि एक नब्बे वर्ष के रोगी की मृत्यु होते ही दो ट्रकों में भर कर एक वर्ग विशेष के कुछ गुंडे नुमा लोग आते हैं और एनआरएस मेडिकल कालेज के अस्पताल में बिना यह देखे और पूछे कि इन डाक्टरों ने उस बूढ़े मरीज का इलाज किया भी था या नहीं जो डाक्टर सामने पड़ा उस से मारपीट की गई और उन्हें गंभीर रूप से घायल तक कर दिया गया।
सामान्य रूप से अगर देखा जाय तो इसे देश के अन्य भागों में कभी कभार होने वाली एक घटना के रूप में देखा जा सकता है। शायद मरीज की मृत्यु से तात्कालिक रूप से उपजी यह एक प्रतिक्रिया ही रही हो किन्तु अपनी सुरक्षा के लिए चिंतित जूनियर डाक्टरों द्वारा हड़ताल पर चले जाने पर, ममता दीदी की एक वर्ग विशेष की तुष्टिकरण की एकतरफा सोच और उसके खुले प्रदर्शन के चलते, मामले की गंभीरता को न समझते हुए डाक्टरों को धमका कर हड़ताल तोडऩे की कोशिशों के अधीन दी गई धमकी ने, परिस्थितियों को बिगाड़ कर रख दिया। पहले से ही मुस्लिम तुष्टिकरण और वोट बैंक की राजनीति के चलते ममता दीदी बंगाल को हिन्दू और मुस्लिमों के बीच बांट चुकी हैं और बात बेबात मुसलमानों का पक्ष लेते रहने से बंगाल के हिन्दुओं चाहे वे किसी जाति या वर्ण के हों, सामान्यजन हों या शासकीय अथवा अशासकीय सेवारत कर्मचारी या अधिकारी हों, हर क्षेत्र में वोट बैंक की राजनीति के चलते स्वयं को उपेक्षित और अरक्षित अनुभव करने लगे हैं। हो सकता है जूनियर डाक्टरों के मनों में भी पहले से ही यह भावना रही हो जिसे ममता दीदी की धमकी से हवा मिल गई और वह धधक कर प्रचंड ज्वाला बन गई। हड़ताल, धरना, प्रदर्शन और जलसे, जुलूसों से अपनी राजनीति की शुरूआत करने वाली ममता दीदी को अपने विरूद्ध यह सब करना नहीं भाया जबकि अपने एक चहेते आईपीएस से पूछताछ के लिए केंद्र से आई सीबीआई की टीम के विरुद्ध वे प्रदेश के सर्वोच्च प्रशासनिक पद पर होते हुए भी धरने पर बैठ चुकी थीं। दोहरे मानदण्ड किसी शीर्ष संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्तित्व को कैसे शोभा दे सकते हैं। ऐसा लगता है कि ममता दीदी को भाजपा फोबिया हो गया है। हर बात और हर घटना में जो थोड़ी सी भी उनके विरुद्ध जाती हो, की तह में उन्हें भाजपा का हाथ लगने लगता है।
इस काण्ड में भी ऐसा ही हुआ और बजाय इसके कि वे पीड़ित डाक्टरों से सहानुभूतिपूर्वक बात करके उन्हें मरीजों की दिक्कतों का वास्ता देकर हड़ताल तोडऩे को कहतीं, इसके बजाय उन्होंने हड़तालियों को धमकाते हुए हड़ताल न तोडऩे पर हास्टल के कमरों से निकालने की बात कर दी। प्रतिक्रिया वही हुई जैसी होनी चाहिए थी। जूनियर डाक्टर भड़क गए और उनके समर्थन में सीनियर्स भी आ गए तथा ममता दीदी की ऊल-जलूल हरकतों से इस हड़ताल को राष्ट्रव्यापी स्वरूप मिल गया।बंगाल में सबसे बड़ी समस्या यह है कि कुछ ही महीनों बाद वहां विधानसभा निर्वाचन होने जा रहा है। लोकसभा चुनाव २०१४ से ही भाजपा, ममता दीदी के मुस्लिम तुष्टिकरण के तिलस्म को तोडऩे में पूरी जी जान से लगी है और बहुत कुछ इस तिलस्म के सामने हिन्दुओं को गोलबंद कर इसे तोड़ भी चुकी है। रही सही कसर टीएमसी के हिंसक कार्यकर्ता पूरी करते चले जा रहे हैं और वे भाजपा के पाले में चले गए हिन्दुओं को हिंसा के बल पर अपने पक्ष में लाने के लिए लगातार हिंसा का सहारा ले रहे हैं जिसकी प्रतिक्रिया में ममता से थोड़ी बहुत सहानुभूति रखने वाला हिन्दू मतदाता भी विवश होकर भाजपा के पाले में सिमटता चला जा रहा है।
कुल मिला कर ममता दीदी स्वयं अपने राजनैतिक रास्ते पर नुकीले पत्थरों को बिछाने की गलती पर गलती करती चली जा रही हैं जिसमें एक गलती जूनियर डाक्टरों की हड़ताल को ममता द्वारा मुस्लिम वोट बैंक से जोड़कर उसे सख्ती से दबाने की नीति पर चलना भी रही। हालांकि इस हड़ताल के राष्ट्रव्यापी स्वरूप ले लेने के बाद ममता को अपनी गलती समझ में आई और उन्होंने डाक्टरों के आगे झुकते हुए उनकी सभी मांगें मानने का आश्वासन देकर हड़ताल तुड़वा दी और अपनी सरकार की और फजीहत को बचा लिया। अब आगे समय बताएगा कि दीदी फिर से ऐसी गलती दोहराएंगी या अपने गुस्से पर काबू पाकर अपने बचे-खुचे हिन्दू वोट बैंक को अपने पाले में बचाए रखने में सफलता पाएंगी?