वीर सावरकर रचित “१८५७ का स्वातंत्र्य समर” मात्र इतिहास की पुस्तक नहीं, यह तो स्वयं में इतिहास है। संभवतः, यह विश्व की पहली पुस्तक है, जिसे प्रकाशन के पूर्व ही प्रतिबंधित होने का गौरव प्राप्त हुआ। इस पुस्तक के प्रकाशन की संभावना मात्र से सर्वशक्तिमान ब्रिटिश साम्राज्य-बीसवीं सदी के प्रथम दशक में जहाँ कभी सूर्यास्त नहीं होता थी, इतना थर्रा गया था कि पुस्तक का नाम उसके प्रकाशन व मुद्रक के नाम-पते का ज्ञान न होने पर भी उसने इस पुस्तक पर प्रतिबंध लगा दिया। इस पुस्तक को ही यह गौरव प्राप्त है कि सन् १९०९ में इसके प्रथम गुप्त संस्करण के प्रकाशन से १९४७ में उसके प्रथम खुले प्रकाशन तक के अडत़ीस वर्ष लंबे कालखंड में उसके कितने ही गुप्त संस्करण अनेक भाषाओं में छपकर देश-विदेश में वितरित होते रहे। उस पुस्तक को छिपाकर भारत में लाना एक साहसपूर्ण क्रांति-कर्म बन गया। वह देशभक्त क्रांतिकारियों की “गीता” बन गई। उसकी अलभ्य प्रति को कहीं से खोज पाना सौभाग्य माना जाता था। उसकी एक-एक प्रति गुप्त रूप से एक हाथ से दूसरे हाथ होती हुई अनेक अंतःकरणों क्रांति की ज्वाला सुलगा जाती थी।
इतिहास की इस क्रांतिकारी पुस्तक का इतिहास आरंभ होता है सन् १९०६ से, जब क्रांति-मंत्र में दीक्षित युवा विनायक दामोदर सावकार वकालत पढऩे के नाम पर शत्रु के घर इंग्लैंड में ही मातृभूमि का स्वातंत्र्य समर लडऩे पहुंच जाते हैं। प्रखर राष्ट्रभक्त एवं संस्कृत के महाविद्वान पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा द्वारा स्थापित इंडिया हाउस को अपनी क्रांति-साधना का केंद्र बना लेते हैं। मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए व्याकुल युवकों का संगठन खड़ा कर लेते हैं। सन् १९०७ में १८५७ की क्रांति की पचासवीं वर्षगांठ पड़ी। इस प्रसंग पर भारत में अपने दमन व शोषण के काले इतिहास पर लज्जा और पश्चाताप का प्रकटीकरण करने के बजाय ब्रिटिश समाचार पत्रों व बौद्धिकों ने अपने राष्ट्रीय शौर्य की गर्वोक्ति और भारतीय नेताओं की निंदा का दुष्प्रयास करके लंदन में मौजूद भारतीय देशभक्तों को उद्वेलित कर दिया। यह एक प्रकार से बर्रों के छत्ते में ढेला मारने के समान था।
सन् १८५७ की पचासवीं वर्षगाँठ को ब्रिटेन ने विजय दिवस के रुप में मनाया। ब्रिटिश समाचार पत्रों ने विशेषांक निकाले, जिनमें ब्रिटिश शौर्य का बखान और भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों की भर्त्सना की गई। ६ मई को लंदन के प्रमुख दैनिक डेली टेली ग्राफ ने मोटे अक्षरों में शीर्षक छापा- पचास वर्ष पूर्व इसी सप्ताह शौर्य प्रदर्शन से हमारा साम्राज्य बचा था। जले पर नमक छिडव़ने के लिए लंदन में एक नाटक खेला गया, जिसमें रानी लक्ष्मीबाई एवं नाना साहेब जैसे श्रेष्ठ नेताओं को हत्यारा व उपद्रवी बताया गया। सावरकर के नेतृत्व में भारतीय देशभक्तों ने इस अपमान का उत्तर देने के लिए १० मई को सन् १८५७ की पचासवीं वर्षगाँठ बड़ी धूमधाम से मनाई। भारतीय युवकों ने १८५७ की स्मृति में अपनी छाती पर चमकदार बिल्ले लगाए। उन्होंने उपवास रखा, सभाएँ कीं, जिनमें स्वतंत्र होने तक लड़ाई जारी रखने की प्रतिज्ञा ली गई। भारतीय देशभक्ति के इस सार्वजनिक प्रदर्शन से शासकीय अहंकार में डूबे अंग्रेज तिलमिला उठे। कई जगह भारतीय युवकों से झडप़ की नौबत आ गई। हरनाम िसिंह एवं आर.एम. खान जैसे युवकों को छाती पर से बिल् न हटाने की जिद के कारण विद्यालय से निष्कासन झेलना पड़ा। अंग्रेजों को अपने ही घर में भारतीय राष्ट्रवाद के उग्र रूप का साक्षात्कार हुआ।
किंतु इस प्रकरण ने सावरकर को अंदर से झकझोर डाला। उनके मन में प्रश्नों का झंझावात खड़ा हो गया। सन् १८५७ का यथार्थ क्या है? क्या वह मात्र एक आकस्मिक सिपाही विद्रोह था? क्या उसके नेता अपने तुच्छ स्वार्थों की रक्षा के लिए अलग अलग इस विद्रोह में कूद पड़े थे? क्या वह किसी बड़े लक्ष्य की प्राप्ति के लिए एक सुनियोजित प्रयास था? यदि हाँ, तो उस योजना में किसका मस्तिष्क कार्य कर रहा था? योजना का स्वरूप क्या था? क्या सन् १८५७ एक बीता हुआ बंद अध्याय है या भविष्य के लिए प्रेरणादायी जीवंत यात्रा? भारत की भावी पीढिय़ों के लिए १८५७ का संदेश क्या है? आदि-आदि। सावरकर ने इन प्रश्नों का उत्तर खोजने के लिए शोध करने का निश्चय किया। इंडिया हाउस के मैनेजर मुखर्जी की अंग्रेज पत्नी की सहायता से उन्होंने भारत संबंधी ब्रिटिश दस्तावेजों के आगार डंडिया ऑफिस लाइब्रेरी में प्रवेश पा लिया। लगभग डेढ़ वर्ष तक वे इडिय़ा ऑफिस लाइब्रेरी और ब्रिटिश म्यूजियम लाइब्रेरी में सन् १८५७ संबंधी दस्तावेजों एवं ब्रिटिश लेखन के महासमुद्र में डुबकियाँ लगाते रहे। जातीय अंहकार और विद्वेष जनित पूर्वग्रही ब्रिटिश लेखन में छिपे सत्य को उन्होंने खोज निकाला। १८५७ के वास्तविक स्वरुप का साक्षात्कार करने में वे सफल हुए। उन्होंने १८५७ को एक मामूली सिपाही विद्रोह के गड्ढे से उठाकर भारतीय स्वातंत्र्य समर के उच्च सिहांसन पर प्रतिष्ठित कर दिया। अपनी इस शोध साधना को उन्होंने मराठी भाषा में निबद्ध किया।
इस बीच लंदन में १० मई, १९०८ को १८५७ की क्रांति की वर्षगाँठ का आयोजन किया गया। इस अवसर के लिए सावरकर ने 9ध् र्श्ीीूब्ीे“ (ऐ शहीदों) शीर्षक से अंग्रेजी में चार पृष्ठ लंबे पैंफ्लेट की रचना की, जिसका इंडिया हाउस में आयोजित कार्यक्रम में तथा यूरोप व भारत में बड़े पैमाने पर वितरण किया गया। इंडिया ऑफिस लाईब्रेरी और ब्रिटिश म्यूजियम लाईब्रेरी में लगातार एक वर्ष तक बैठने के कारण यह तो छिपा नहीं था कि सावरकर १८५७ का अध्ययन कर रहे हैं; परंतु उनका अध्ययन किस दिशा में जा रहा है, इसका कुछ आभास इस पैंफ्लेट से हो गया। इस पैंफ्लेट की काव्यमयी ओजस्वी भाषा १८५७ के शहीदों के माध्यम से भावी क्रांति का आह्वान थी। सावरकर ने लिखा “१० मई, १८५७ को शुरू हुआ युद्ध १० मई, १९०८ को समाप्त नहीं हुआ है, वह तब तक नहीं रुकेगा जब तक उस लक्ष्य को पूरा करने वाली कोई अगली १० मई आएगी। ओ महान् शहीदो! अपने पुत्रों के इस पवित्र संघर्ष में अपनी प्रेरणादायी उपस्थिति से हमारी मदद करो। हमारे प्राणों में भी जादू का वह मंत्र फूँक दो जिसने तुमको एकता के सूत्र में गूँथ दिया था।” इस पैंफ्लेट के द्वारा सावरकर ने १८५७ को एक मामूली सिपाही विद्रोह की छवि से बाहर निकालकर एक सुनियोजित स्वातंत्र्य युद्ध के आसन पर प्रतिष्ठित कर दिया। १९१० में सावरकर की गिरफ्तारी के बाद उन पर राजद्रोह का मुकदमा चला और उन्हें पचास वर्ष लंबे कारावास की सजा देने वाले निर्णय में “ऐ शहीदाें” पैंफ्लेट की उपर्युक्त पंक्तियाँ ही उद्धृत की गई थीं।
१० मई, १९०८ को लंदन के इंडिया हाउस में १८५७ की क्रांति का वर्षगाँठ समारोह अनूठा था। इंग्लैंड और यूरोप के सैकड़ों भारतीय देशभक्त उसमें एकत्र हुए। माथे पर चंदन लगाकर १८५७ के शहीदों का पुण्य स्मरण करते हुए मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए सुखों को ठोकर मारकर सर्वस्वार्पण का संकल्प लिया गया। १८५७ की क्रांति की संदेशवाहक चपाती का प्रतीप-स्वरुप वितरण हुआ। क्रांति की आग प्रज्वलित करने वाले उक्त पैंफ्लेट का वितरण और वाचन हुआ। इस अनूठे कार्यक्रम का समाचार ब्रिटिश समाचार पत्रों पर छा गया। सभी पत्रों ने उस पैंफ्लेट को राजद्रोह और क्रांति की चिनगारी सुलगाने वाला बताया।
ब्रिटिश गुप्तचर विभाग बड़ी तत्परता से सावरकर की पुस्तक की पांडुलिपि की खोज में लग गया। ब्रिटिश सरकार की आँखों में धूल झोंककर इस पांडुलिपि की अनेक देशों में यात्रा, प्रकाशन और प्रकाशन पूर्व प्रतिबंध कि रोमांचकारी कहानी हमें १० जनवरी, १९४७ को बंबई से प्रकाशित प्रथम अधिकृत संस्करण में मराठी साप्ताहिक अग्रणी के संपादक श्री जी.एम. जोशी की कलम से तथा दिल्ली स्थित राष्ट्रीय अभिलेखागार में सुरक्षित फाइलों में मिलती है। जी.एम. जोशी लिखते हैं कि “सावरकर ने अपनी पहली रचना “मेजिनी का चरित्र” की तरह ही इस पांडुलिपि को भी प्रकाशन हेतु अपने बड़े भाई बाबाराव सावरकर के पास नासिक भेज दिया। ब्रिटिश गुप्तचर एजेंसियाँ उस पांडुलिपि की खोज में लगी हुई थीं। सावरकर ने पेरिस से प्रकाशित क्रांतिकारी पत्र “तलवार” में एक लेख लिखकर १८५७ के इतिहास को लिखने के पीछे अपने उद्देश्यों को स्पष्ट किया। उन्होंने लिखा कि वे इस पुस्तक के द्वारा देशवासियों के मन में मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए द्वितीय निर्णायक युद्ध का संकल्प जगाना चाहते हैं। वे उस इतिहास के माध्यम से पिछली भूलों से सबक लेते हुए स्वातंत्र्य समर के लिए संगठन के कार्यक्रम व दिशा-निर्देश भी करना चाहते हैं। पूरे भारत में स्वतंत्रता की अलख जगाने का इससे अधिक प्रभावी व सफल माध्यम क्या हो सकता है कि उनके सामने उस क्रांतियुद्ध, जो निकट भूत में घटा था और जिसकी याद अभी ताजा है, का शुद्ध इतिहास प्रस्तुत कर दिया जाए। स्वाभाविक ही, ऐसा ज्वलनशील इतिहास ग्रंथ ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के लिए भारी डर का कारण बन गया था।”
उन्हें कहीं से भनक लगी कि मूल ग्रंथ मराठी भाषा में लिखा गया है और भारत में कहीं उसे छापा जा रहा है। बंबई प्रांत की पुलिस ने महाराष्ट्र के सभी प्रमुख छापेखानों पर एक साथ छापा मारा; किंतु सौभाग्य से जिस छापेखाने में वह छप रहा था उसके मालिक, जो स्वयं भी अभिनव भारत पार्टी से जुड़ा था, को अपने किसी पुलिसवाले मित्र से आसन्न छापे की जानकारी मिल गई। अतः छापा पडऩे के पहले ही पांडुलिपि को वहाँ से हटा दिया गया और उसे लंदन न भेजकर सुरक्षित पेरिस पहुँचा दिया गया। वहाँ के भारतीय क्रांतिकारियों ने यह सोचकर कि जर्मनी में संस्कृत ग्रंथाें की मुद्रण परंपरा होने के कारण वहाँ देवनागरी लिपि के मराठी ग्रंथ को छपवाना संभव होगा, पांडुलिपि को जर्मनी भेज दिया। किंतु वहाँ के कंपोजिटरों को मराठी भाषा का ज्ञान तनिक भी नहीं था। अतः निराशा हाथ लगी और मराठी पांडुलिपि वापस आ गई।
अब क्रांतिकारी टोली ने निर्णय किया कि ग्रंथ का जल्दी से जल्दी अंग्रजी भाषा में अनुवाद किया जाए, अतः उसके कई अध्यायों को अलग-अलग
व्यक्तियों को अनुवाद के लिए बाँट दिया गया। सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी वी.वी.एस. अय्यर के मार्गदर्शन में इंग्रलैंड में आई.सी.एस. और लॉ की परीक्षा की तैयारी में लगे हुए कुछ मेधावी देशभक्त मराठी छात्रों ने शीघ्रताशीघ्र मराठी ग्रंथ का अंग्रेजी रूपांतर तैयार कर दिया। अब पुनः समस्या खड़ी हुई कि अंग्रेजी ग्रंथ का मुद्रण कहाँ हो? ब्रिटिश गुप्तचर विभाग की सक्रियता के कारण इंग्लैंड के किसी छापेखाने में छपवाना निरापद नहीं था। पेरिस उन दिनों भारतीय क्रांतिकारियों का गढ़ था;िकिंतु उस समय तक जर्मनी के विरुद्ध प्रांस और ब्रिटेन का गठबंधन हो चुका था। अतः प्रांस सरकार का गुप्तचर विभाग भी उन दिनों ब्रिटिश सरकार के दबाव में भारतीय क्रांतिकारियों के पीछे पड़ा हुआ था। जी.एम. जोशी का कहना है कि क्रांतिकारियों ने किसी प्रकार हॉलैंड के एक छापेखाने को यह ग्रंथ छापने के लिए तैयार कर लिया और ब्रिटिश गुप्तचर विभाग को अँधेरे में रखने के लिए प्रचारित कर दिया कि पुस्तक पेरिस में छप रही है। जी.एम. जोशी के अनुसार, हॉलैंड में छपने के बाद पुस्तक का पूरा संस्करण क्रांतिकारियों के प्रांस स्थित ठिकानों पर सुरक्षित पहुँच गया, जहाँ से उसके वितरण की व्यवस्था की गई।
अब हम दिल्ली के राष्ट्रीय अभिलेखागार में सुरक्षित फाइलों पर पहुँच जाते हैं। इन फाइलों के अनुसार, न्यू स्कॉटलैंड यार्ड ने ६ नवबंर, १९०८ को पुस्तक के छपने की रिपोर्ट ब्रिटिश सरकार को दी, जो तुरंत भारत सरकार को भेजी गई। १४ दिसंबर, १९०८ के तत्कालीन ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड मिंटो ने आदेश दिया कि पुस्तक के भारत प्रवेश को हमें रोकना होगा। गुप्तचर विभाग के निदेशक ने १८ दिसंबर को लिखा कि निस्संदेह यह पुस्तक बहुत आपत्तिजनक होगी और इसे समुद्र कस्टम्स ऐक्ट की धारा १९ के अंतर्गत प्रतिबंधित करना ठीक होगा। परंतु प्रतिबंध का आदेश जारी करने के पहले उसका सही नाम, छापेखाने का पता और उस पर लेखक के नाम की सही जानकारी प्राप्त करना आवश्यक है। यह जानकारी तभी मिल सकती है, जब पुस्तक की मुद्रित या कम-से-कम उसकी प्रूफ कॉपी हमारे सामने हो। २५ दिसंबर को एच.ए. स्टुअर्ट नामक अधिकारी ने टिप्पणी लिखी कि अच्छा यह होगा कि हम पोस्ट ऑफिस ऐक्ट के अंतर्गत नोटिस जारी करें। निदेशक, गुप्तचर विभाग सर एडवर्ड हेनरी को इंग्लैंड तार भेंजेें कि वे पता लगते ही पुस्तक का शीर्षक हमें सूचित करें। पर, इंग्लैंड का गुप्तचर विभाग पुस्तक का सही नाम पता लगाने में असफल रहा। अंततः ११ जनवरी, १९०९ को भारतीय पोस्ट ऑफिस ऐक्ट की धारा २६ के अंतर्गत प्रतिबंध लगाते हुए पुस्तक का गोलमोल परिचय दिया गया। भारतीय विद्रोह के दिग्गज वी.डी. सावरकर द्वारा मराठी में लिखित कोई पुस्तक या पैंफ्लेट, जो हमारी जानकारी के अनुसार जर्मनी में छपी है। इस कहते हैं अँधेरे में तीर चलाना। भारतीय पोस्ट ऑफिस के महानिदेशक ने सवाल उठाया कि यदि वह पुस्तक मराठी भाषा में है तो बंबई, मध्य प्रांत व राजपूताना सर्किल के डाकखानों में ही उसे रोका जा सकेगा; क्योंकि अन्य प्रांतों में मराठीभाषी कर्मचारी उपलब्ध नहीं हैं। २ जनवरी, १९०९ को एक नया सवाल खड़ा हो गया कि अगर वह मराठी पुस्तक जर्मनी से छपकर भारत आ रही है तो उसे समुद्री डाक में ही रोकना होगा; पर काफी सोच-विचार के बाद पोस्ट ऑफिस ऐक्ट के अंतर्गत ही पुस्तक पर प्रतिबंध लगाने का निर्णय लिया गया; क्योंकि समुद्र कस्टम्स ऐक्ट के अंतर्गत लिये गए किसी भी निर्णय को इंग्लैंड व यूरोप में भी प्रचारित करना पडत़ा,ज़िससे वहाँ के भारतीय क्रांतिकारी सतर्क हो जाते।
२० जुलाई, १९०९ को घबराई हुई बंबई सरकार ने भारत सरकार को तार भेजा कि इस पुस्तक के वितरण को रोकना अत्याधिक महत्वपूर्ण है और वह पुस्तक किसी भी क्षण भारी मात्रा में भारत पहुँच सकती है। अतः हम भारत सरकार से विनम्रतापूर्वक भीख माँगते हैं कि बिना एक क्षण की देरी लगाए समुद्र कस्टम्स ऐक्ट की धारा १९ के अंतर्गत पुस्तक के भारत प्रवेश पर प्रतिबंध का आदेश जारी करें। जहाँ तक पुस्तक के परिचय का संबंध है, अभी तक प्राप्त जानकारी के अणुसार उसे भारतीय विद्रोह पर विनायक दामोदर सावरकर ने लिखा है। पुस्तक को पूरी तरह घेरने की दृष्टि से उसका परिचय यशासंभव व्यापक कर दिया जाए। आदेश जारी होते ही उसे इंग्लैड प्रेषित कर दिया जाए। २१ जुलाई, १९०९ को भारत सरकार के अधिकारी एच.ए. स्टुअर्ट ने टिप्पणी लिखी कि पुस्तक मराठी में होने के कारण बंबई सरकार बहुत घबराई हुई है। अतः प्रचार की परवाह न करके भी समुद्र कस्टम्स ऐक्ट के अंतर्गत प्रतिबंध का आदेश जारी करना उचित रहे। किंतु मेरी जानकारी है कि उस पुस्तक के अंग्रेजी और मराठी दोनों भाषाओं में संस्करण छप चुके हैं। अंग्रेजी संस्करण को लंदन में ए. बोन्नेर ने छापा है। पोस्टि ऑफिस ऐक्ट के अंतर्गत ११ जनवरी का आदेश केवल मराठी संस्करण पर लागू होता है, अतः आदेश की भाषा में संशोधन करना होगा। संशोधित आदेश में भाषा रखी जाए, भारतीय विद्रोह पर विनायक दामोदर सावरकर द्वारा मराठी में लिखित पुस्तक या पैंफ्लेट और उसका अंग्रेजी अनुवाद या रूपांतर।
साथ ही स्टुअर्ट ने यह भी लिखा कि बंबई सरकार का यह कथन कि घोषणापत्र को तुरंत इंग्लैड सूचित किया जाए, पुनर्विचार चहाता है। मेरे विचार से इंग्लैंड सूचना न भेजी जाए, क्योंकि पुस्तक की अधिक से अधिक प्रतियों को जब्त करने के लिए आवश्यक है कि इंग्लैंड में ही उसका जहाज से लदान रोका जाए। वहाँ नोटिस भेजने का परिणाम होगा कि सावरकर के मित्रगण को इसकी जानकारी हो जाएगी और वे प्रतिबंध के आदेश के उल्लंघन के नए-नए रास्ते खोज लेंगे।
उसी दिन २१ जुलाई को क्रिमिनल इंटेलीजेंस के उप-निदेशक ए.बी. बर्नार्ड ने लिखित सूचना दी कि हमारी जानकारी के अनुसार सावरकर की पुस्तक का अभी तक केवल अंग्रेजी संस्करण ही छप पाया है और उसका शीर्षक “१८५७ की क्रांति का इतिहास ” या “१८५७ का इतिहास” रखा गया है। पुस्तक का प्रकाशन कार्य २४ जून तक पूर्ण हो जाना था। अतः अगली डाक से उसके भारत पहुँचने की पूरी संभावना है। इसका अर्थ है कि उसकी प्रतियाँ पहले ही रवाना की जा चुकी हैं और इस समय रास्ते में होगी। अंतः आदेश को तार द्वारा इंग्लैंड भेजने से भी पुस्तकों का जहाज पर लदान रोका नहीं जा सकेगा। २२ जुलाई को भारत सरकार के एक अधिकारी एम.एम.एस. गुब्बाय ने आपत्ति उठाई कि पुस्तक के विवरण की भाषा समुद्री कस्टम्स ऐक्ट की धारा १९ के लिए पर्याप्त नहीं है। इस कानूनी आपत्ति ने भारत सरकार के सामने नया संकट खड़ा कर दिया। क्या वे कानूनी आवश्यकता को पूरी करने लिए पुस्तक को अपनी आँखों से देखने तक प्रतिक्षा करते रहें? इसका अर्थ होगा भारत में पुस्तक का प्रवेश, जिसे रोकने के लिए वे छह महीने से यह व्यायाम कर रहे हैं। बंबई सरकार अगले ही क्षण आदेश जारी होने के लिए छटपटा रही थी। दिन भर की माथा-पच्ची के बाद सरकार ने २२ जुलाई, १९०९ को थोड़े संशोधन के बाद पुस्तक का विवरण देने के लिए निम्नलिखित शब्दावली को अपनाया-
“भारतीय विद्रोह के बारे में वी.डी. सावरकर द्वारा मराठी में लिखित पुस्तक या पैंफ्लेट, जिसके जर्मनी में छपने की रिपोर्ट मिली है और उसका अंग्रेजी अनुवाद।” २३ जुलाई, १९०९ की इस शब्दावली के साथ समुद्री कस्टम्स ऐक्ट की धारा १९ के अंतर्गत पुस्तक पर प्रतिबंध का आदेश अंततः जारी कर दिया गया।
राष्ट्रीय अभिलेखागार में सुरक्षित सरकारी फाइलों से उपलब्ध वायसराय स्तर तक की इन उच्च-स्तरीय टिप्पणियों से स्पष्ट होता है कि ६ नवंबर, १९०८ से २३ जुलाई, १९०९ तक पूरे नौ महीने ब्रिटिश गुप्तचर विभाग एवं भारत सरकार जी-तोड़ कोशिश करके भी पुस्तक की भाषा, शीर्षक, मुद्रण स्थान एवं उस पर प्रकाशित लेखक के नाम के बारे में सही जानकारी नहीं पा सके और अँधेरे में ही तीर चलाते रहे। प्रकाशन के पूर्व ही किसी पुस्तक पर प्रतिबंध लगाने की ब्रिटिश सरकार की इस हताश कार्रवाई ने उसे बहुत हास्यास्पद स्थिति में ला दिया। अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य की अलमबरदार होने का ढिंढोरा विश्व भर में पीटने वाली अपनी सरकार की वकालत करने में ब्रिटिश समाचार पत्र एवं बुद्धिजीवी स्वयं को असमर्थ पाने लगे।
इस पर सावरकर ने र्साधिक प्रतिष्ठित दैनिक “द लंदन टाइम्स” में संपादक के नाम पत्र लिखकर ब्रिटिश सरकार पर तीखा व्यंग तीर चला दिया। सावरकार ने लिखा “ब्रिटिश अधिकारियों ने स्वीकार किया है कि वे निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते कि वह पुस्तक अभी छपी है कि नहीं। यदि ऐसा है तो सरकार ने यह कैसे जान लिया कि वह पुस्तक भयावह राजद्रोहात्मक है? क्यों वे उसके छपने या प्रकाशन के पूर्व ही उसे प्रतिबंधित करने के लिए दौड़ पड़े? या तो सरकार के पास पांडु़िलपि की प्रति है या नहीं है। यदि उनके पास पांडुलिपि की प्रति है तो वे इन पर राजद्रोह का मुकदमा क्यों नहीं चलाते, क्योंकि उनके सामने यही एकमात्र वैधानिक रास्ता खुला रह जाता है। और यदि उनके पास पांडुलिपि की प्रति है ही नहीं तो वे जिस पुस्तक के बारे में अपुष्ट अफवाहों या उडत़ी बातों के अलावा कुछ नहीं जानते, उसे राजद्रोहात्मक कहकर प्रतिबंधित कैसे कर सकते हैं?” “द लंदन टाइम्स” ने सावरकार के उपर्युक्त पत्र को न केवल पूरा छापा बल्कि उसके साथ अपनी टिप्पणी भी जोड़ी क़ि यदि सरकार ने ऐसा कठोर और असामान्य पग उठाना आवश्यक समषा तो इससे सिध्द होता है कि दाल में कुछ काला है।
यदि भारत सरकार के किसी अधिकारी एच.ए. स्टुअर्ट को २१ जुलाई को ही पता चल चुका था कि पुस्तक का अंग्रेजी रुपांतर लंदन के ए. बोन्नेर प्रकाशन गृह ने म़िद्रत किया है तो उस पर छापा क्यों नहीं मारा गया? क्यों २३ जुलाई, १९०९ को प्रतिबंध लगाने वाली विज्ञप्ति में पुस्तक का परिचय गोलमाल भाषा में देना प़्ाडा? इसका निर्णय करना अभी भी कठिन हो रहा है कि उस पुस्तक का प्रथम गुप्त संंस्करण हॉलैंड में छपा या इंग्लैड में। जैसा हम ऊपर लिख चुके हैं कि सन् १९४७ में प्रकाशित प्रथम अधिकृत संस्करण में श्री जी. एम. जोशी द्वारा ११ जनवरी, १९४७ की तिथि में लिखित प्राक्कथन के अनुसार वह संस्करण १९०९ में इंग्लैंड से छपा। क्या सही मुद्रण स्थान है लैंंंंड को छिपाने और ब्रिटिश सरकार को गुमराह करने के लिए जान-बूझकर इंग्लैंड में छापा गया? सत्य चाहे जो हो, ब्रिटिश सरकार की भरसक कोशिशों के बावजूद पुस्तक का अंग्रेजी संस्करण छप ही गया। उसका शीर्षक था- “१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर” और उस पर लेखक का नाम था-“एक भारतीय राष्ट्रभक्त”
अब शुरु हुआ पुस्तक का वितरण अभियान। इस अभियान की कहानी पुस्तक के प्रकाशन अभियान से भी अधिक रोमांचकारी है। पुस्तक की प्रतियों को चोरी-छिपे भारत पहुँचाने के लिए उन्हें “पिकविक पेपर्स”, “स्कॉट की रचनाएँ”, “डॉन क्विग्जोट” जैसी लोकप्रिय निरापद पुस्तकों के नकली आवरणों के भीतर छिपा दिया जाता था। उन दिनों उस पुस्तक की एक प्रति को भी सुरक्षित भारत पहुँचा देने को सर्वशक्तिमान ब्रिटिश सरकार को चुनौती देने का साहस भरा क्रांतिकारी कार्य माना जाने लगा था। इसके लिए-नए-नए तरीके खोजे गए। अपने सामान की पेटी अपनाने वालों में सिकंदर हयात खान और आसफ अली जैसे प्रसिध्द लोगों के नाम भी आते हैं।
पुस्तक की भाषा तो ओजस्वी थी ही, उसमें प्रस्तुत तथ्यों को चुनौती दे पाना ब्रिटिश इतिहासकारों के लिए भी संभव नहीं हो रहा था। “टाइम्स” संवाददाता वेलेंटाइन चिरोल ने सन् १९१० में प्रकाशित अपनी पुस्तक “इंडियन अनरेस्ट” में लिखा कि “यह भारतीय विद्रोह का अद्भुत इतिहास है, जिसमें गहन शोध और तथ्यों की भयंकर विकृति का मिश्रण है। इसमें एक महान् साहित्यिक प्रतिभा ने राक्षसी घृणा को परोसा है।”
ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रकाशन-पूर्व प्रतिबंध की असामान्य घोषणा ने पुस्तक को एकदम लोकप्रिय बना दिया। प्रत्येक देशभक्त युवा अंतःकरण उसे पढऩे के लिए छटपटाने लगा। उस दुर्लभ पुस्तक की एक-एक प्रति उस जमाने में ३०० रुपए में गुप्त रुप से बिकने लगी। उसे पढऩा और प़्ाढवाना क्रात़ि-धर्म बन गया। एक प्रति गुप्त रुप से अनेक हाथों में क्रम से घूमती रही। आतुर युवक पूरी-पूरी रात लालटेन की रोशनी में बंद कमरे में छिपकर पुस्तक का पारायण करते और स्वयं को क्रांति-मंत्र में दीक्षित मानने लगते। स्वाभाविक ही इस बढत़ी माँग को पूरा करने के लिए जगह-जगह उसके अनधिकृत संस्करण गुप्त रुप से छपने लगे। एक हाथ से दूसरे हाथ तक पुस्तक का प्रसारण यदि जोखिम भरा था तो उसका गुप्त रुप से मुद्रण तो बहुत ही जोखिम भरा रहा होगा। ऐसे कितने संस्करण किस-किस भाषा में कहाँ-कहाँ से छपे, इसकी पूरी जानकारी आना अभी शेष है। कुछ ही संस्कारणों की जानकारी अभी तक उपलब्ध हो पाई है।
पुस्तक के अध्ययन की भूख केवल भारत तक ही सीमित नहीं थी, यूरोप, जापान और अमेरिका में भी उसकी चाह हुई। उसका प्रेंच अनुवाद सन् १९१० में ही प्रकाशित हो गया। एम.पी.टी. आचार्य और मैडम कामा ने वह प्रेंच अनुवाद तैयार किया। एक प्रांसीसी क्रांतिकारी व पत्रकार ई. पिरियोन ने उसका प्राक्कथन लिखा। उसकी भाषा व शैली से अभिभूत होकर उन्होंने लिखा कि यह एक महाकाव्य है, दैवी मंत्राोच्चार है, देशभक्ति का दिशाबोध है। यह पुस्तक हिंदू-मुस्लिम एकता का संदेश देती है, क्योंकि महमूद गजनवी के बाद १७५७ में ही हिंदुओं और मुसलमानों ने मिलकर समान शत्रु के विरुद्ध युध्द लड़ा। यह सही अर्थों में राष्ट्रीय क्रांति थी। इसने सिध्द कर दिया कि यूरोप के महान् राष्ट्रों के समान भारत भी राष्ट्रीय चेतना प्रकट कर सकता है।”
यद्यापि पुस्तक पर लेखक क नाम “एक भारतीय राष्ट्रभक्त”छपा था; किंतु श्री पिरियोन को पता था कि लेखक का वास्तविक नाम विनायक दामोदर सावरकर है। श्री पिरियोन द्वारा लिखित इस प्राक्कथन को प्रेंच प्रत्रिका “ले कोरियर” ने अपने २५ जुलाई, १९१० के अंक में छाप दिया। ब्रिटिश कोप से घबराकर प्रांस की सरकार ने पत्रिका के उस अंक को ही प्रतिबंधित कर दिया।
१० मई, १९१० को १७५७ की वर्षगाँठ के अवसर पर एक चित्रमय पोस्टकार्ड जारी किया गया, जिसमें १७५७ के क्रांति संदेश के साथ रानी लक्ष्मीबाई का चित्र छापा गया। चित्र के नीचे सूचना गई- “१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर” पुस्तक को पाने कि लिए मैडम बी. आर. कामा को पेरिस के पते पर पत्र लिखें या न्यूयॉर्क की एफ.एच. पब्लिकेशन कमेटी को पत्र लिखें। अंग्रेज बुध्दिजीवियों, राजनीतिज्ञों में भी इस पुस्तक को पढऩे की उत्कंठा जागृत हुई। वे कैसे भी पुस्तक भेंट करते। ऐसे ही अंग्रेज मित्र सर चार्ल्स क्लिवलैंड से खिताफत आंदोलन के प्रसिध्द नेता मुहम्मद अली को यह पुस्तक पढऩे को मिली थी।
सन् १९१० में भारतीय क्रांतिकारियों पर ब्रिटिश दमन-चक्र घूमा। वीर सावरकर लंदन में गिरफ्तार करके भारत लाए गए और उन्हें दो जन्मों का कारावास दंड देकर काला पानी (अंडमान) भेज दिया गया। भारत में भी बड़ी संख्या में क्रात़िकारियों की धर-पकड़ हुई। बड़ी संख्या में उन्हें अंडमान टापू भेज दिया गया। इस आघात से थोड़ा सँभलते ही मैडम कामा, लाला हरदयाल एवं वीरेंद्र नाथ चट्टोपाध्याय अद़ि क्रांतिकारियों ने “१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर” का अंग्रेजी में दूसरा संस्कारण प्रकाशित किया।
पहला संस्करण तो निःशुल्क वितरित किया गया था। किंतु इस संस्करण का मूल्य रखा गया, ताकि क्रांतिकारी दल को थोड़ा-बहुत आर्थिक सहारा मिल सके।
इस बीच लाला हरदयाल फरवरी १९११ में अमेरिका के पश्चिमी तट पर सैन प्रांसिस्को पहुँच गए। वहां बड़ी संख्या में पंजाबी सिक्ख व गैर-केशधारी बसे हुए थे। लाला हरदयाल ने सन् १९१९ में गदर पार्टी की स्थापना की। नवंबर १९९३ में उन्होंने उर्दू में “गदर”नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया और जनवरी १९१४ से गुरुमुखी लिपि में पंजाबी संस्कारण शुरू किया। हरदयाल के मन पर सावरकार की रचना की गहरी छाप बैठी हुई थी। वे उसे दूसरे स्वातंत्र्य समर का पथ-प्रदर्शन मानते थे। इसलिए उन्होंने “गदर”पत्रिका के उर्दू एवं पंजाबी संस्कारणों में उस पुस्तक के अंशों को धारावाहिक छापना आरंभ कर दिया। सार्वजनिक सभाओं में भी तैयार हो गए। सावरकर ने जो आशा की थी कि सन् १८५७ का इतिहास लिखने के पीछे उनका मुख्य उद्देश देशभक्तों को द्वितीय स्वातंत्र्य समर की प्रेरणा व संगठन योजना प्रदान करना है, उसे हरदयाल एवं उनके साथियों के नेतृत्त्व में गदर पार्टी ने पूरा करने की कोश़िश की। उन्होंने प्रथम विश्वयुध्द के समय भारतीय सेनाओं में विद्रोह का मंत्र फूँका।