स्वयंसेवकाें तथा अन्य समर्पित हिन्दू-कार्यकर्ताओं के सत्प्रयासाें के कारण धुर दक्षिण में नागरकोइल से लेकर धुर उत्तर में अमÀतसर और जम्मू तक और धुर पश्चिम में मुम्बई से लेकर धुर पूर्व में गुवाहाटी तक विराट् हिन्दू सम्मेलन हो रहे हैं। इन्हाेंने दिखा दिया है कि हिन्दू-उत्थान की वर्तमान लहर न तो बरसाती लहर है और न ही किसी प्रदेश-विशेष तक सीमित है।
इस महान् जागरण का एक उल्लेखनीय पक्ष स्वयं हिन्दू शब्द से जु़डा है। गत एक शती से कुछ अधिक काल से यह प्रयास होता रहा है कि राष्ट्र के मन में हिन्दू शब्द के प्रति घÀणा पैदा की जाये और उसके मानस-पटल से उसे मिटा दिया जाये। अंग्रेज हिन्दू को यही सिखाता रहा है कि वह हिन्दू से सम्बद्ध हर वस्तु को संकीर्ण, साम्प्रदायिक, अंधविश्वासपूर्ण और पुराणपंथी समझे। उसके सामने यह शर्त रखी गयी कि हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए हिन्दू अपनी अस्मिता और स्वत्व त्याग दे और जब तक हिन्दू-मुस्लिम एकता नहीं होगी, तब तक अंग्रेज भारत नहीं छो़डेंगे। अंग्रेज हमसे भी अच्छी प्रकार से यह जानते थे कि हिन्दू शब्द में ही सच्चे राष्ट्रीय गौरव और एकता की चिंगारी छिपी है। यदि उसे प्रज्ज्वलित कर दिया गया तो वह दावाग्नि का रूप धारण करके उनके साम्राज्य को ही भस्म कर डालेगी। हाल के वषर्ाें में स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानंद, श्री अरविंद, लोकमान्य तिलक और गांधी जी जैसे राष्ट्रीय पुनर्जागरण के नेताओं ने इसी मनोवैज्ञानिक प्रदूषण के विरुद्ध अभियान छे़डा था। हिन्दू चेतना ही हिन्दुस्थान की आत्मा है। अब वही पुनः प्राणवान् होकर जाग उठी है।
प्रबल ऐक्यभाव का प्रस्फुटन
उसके प्राचीन वीराें और हुतात्माओं तथा ऋषियाें और मुनियाें का अमर संदेश देश के एक कोने से दूसरे कोने तक ध्वनित होने लगा है। देश के प्रत्येक भाग और समाज के प्रत्येक वर्ग को उसने स्पर्श किया है। सभी जातियाें, सम्प्रदायाें और भाषाई समूहाें को, चाहे वे नगर के हाें, ग्राम के अथवा जनजाति क्षेत्र के, हिन्दू ऐक्य का यह संुदर स्वस्थ समीर स्फूर्ति प्रदान कर रहा है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि गहन विस्तार और प्रभाव की दृष्टि से ऐसा हिन्दू उत्थान भारत के इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ।
शंकर, मध्व, रामानुज, वल्लभ द्वारा स्थापित पीठाें के प्रख्यात आचार्य तथा अन्य वैदिक दार्शनिक तथा धर्मगुरू, सिखाें, वीरशैवाें, जैनियाें और बौद्धों के धर्मगुरुओं के साथ एक ही मंच पर बैठने लगे हैं। पुराणपंथी मठाधिपति अन्य मठाधिपतियाें के साथ सगे भाइयों की भाँति गले मिलने लगे हैं।
अब गणमान्य साधु और राष्ट्रीय जीवन के हर क्षेत्र के दिग्गज एक समान हिन्दू मंच पर साथ-साथ बैठने लगे हैं। इस कार्य ने हिन्दू उत्थान के आंदोलन को एक प्रामाणिक धार्मिक और सामाजिक स्वीकृति तथा प्रमाण-पत्र प्रदान किया है।
कुछ अधिक महत्वपूर्ण सम्मेलनाें पर हम एक विहंगम दृष्टि डालें तो उससे नये हिन्दू जागरण के विस्तार और संदेश की पर्याप्त झलक मिल सकेगी।
मार्च १९८१ की व्रÀममाला में कर्नाटक में शिमोगा और मंगलूर में जो हिन्दू-समाजोत्सव हुए, उनके बारे में प्रमुख कन्ऩड दैनिकाें ने लिखा है कि उन नगराें में उससे पूर्व उतने विशाल समाजोत्सव पहले कभी नहीं हुए।
दिल्ली में
रैलियाें के महानगर दिल्ली में अक्टूबर १९८१ में जो विराट् हिन्दू समाजोत्सव हुआ, वह सर्वाधिक विशाल था। चाहे विशालता हो या अनुशासन, या राष्ट्रहित सभी दृष्टियाें से उसका स्वरूप सर्वाधिक विराट् था। दस लाख हृदय गद्गद् हो गये जब स्वामी सत्यमित्रानंद ने घोषणा कीः विराट् हिन्दू समाज ने हिन्दू राष्ट्र के परित्राण के लिए इस युग में अवतार लिया है। डॉ. कर्ण सिंह ने सिंह-गर्जना कीः इस महायज्ञ में करो़डाें लोग आहुति देंगे और इस युग में हमारे हिन्दू समाज को उत्थान के नये उत्तुंग शिखराें पर ले जायेंगे।
तमिलनाडु में
हमारे देश के धुर दक्षिणी जिले के नागरकोइल नामक नगर में १९८२ के प्रारंभ में जो कन्याकुमारी जिला सम्मेलन हुआ, वह भी ऐतिहासिक था। इस प्रांत में तो केवल द्रवि़डाें की ही रैलियाँ हुआ करती थीं। पर अब लोग हिन्दू संदेश सुनने हिन्दू सम्मेलन मंे और अधिक संख्या में सम्मिलित होने लगे। समूचे जिले में पर्व का सा उल्लास था। प्रदर्शन में सम्मिलित होने के लिए ४२० में से ३५० गाँवाें के लोग भारी संख्या में उम़ड प़डे। समाचार-पत्राें के अनुसार उनकी संख्या १,००,००० थी। वयोकध्द स्वतंत्रता-सेनानी और तमिलनाडु सवाेदय संघ के नेता शिवन पिल्लै का उद्गार था कि इतनी भी़ड तो उस समय भी नहीं हुई थी जब गांधी जी प्रांत में पधारे थे। स्वाधीनता-संग्राम के दिनाें में भी ऐसा सहज उत्साह, उल्लास और स्वैच्छिक योगदान नहीं देखा गया। हिन्दू धर्मदाय विभाग का एक वरिष्ठ अधिकारी और धार्मिक, सामाजिक तथा राजनीतिक क्षेत्र के प्रमुख नेता भी सम्मेलन में उपस्थित थे। तमिलनाडु के आगामी सामाजिक वातावरण में यह शुभ परिवर्तन है।
असम में
इसी अवधि में पूवाेत्तर प्रदेश में जोरहाट में विशाल पूर्क्रिंचल हिन्दू सम्मेलन हुआ। इसमें सभी हिन्दू-सम्प्रदायाें और पूवाेत्तर प्रांताें की अनेक जनजातियाें के ६,००० प्रतिनिधियाें ने भाग लिया। अतः यह प्रदेश में, अपने ढंग का पहला, अनोखा सम्मेलन था। प्रारंभिक अधिवेशन की अध्यक्षता दो सत्ताधिकारियाें ने की। बाशा सिंह नामक एक वयोकध्द हरिजन ने ऊँ (ओम्) ध्वज फहराकर उसका शुभारंभ किया। अहा, व्यक्तित्वाें की कैसी आकाशगंगा थी, यथा-खासी नेता हिप्सन राय, नागा नेत्री रानी माँ गायडिनलू, इम्फाल के नील वीर शास्त्री, हफलौंग के कछारी नेता कुम्भा होजई दिमासा, नागा नेता रूमकुई वांग, बोरो नेता अविनाश ब्रह्म, विश्व हिन्दू परिषद् अध्यक्ष महाराणा भगवत सिंह मेवा़ड, श्री बालासाहेब देवरस और राजमाता विजयाराजे सिंधिया। यह सब उस सम्मेलन के अनोखे राष्ट्रीय महत्व का प्रत्यक्ष प्रमाण था।
सन १९८०-८२ में असम में विश्व हिन्दू परिषद् ने जिला और तहसील स्तर के व्रÀमशः २७ छोटे-ब़डे सम्मेलन किये। वे एक विशेष दृष्टि से महत्वपूर्ण सिद्ध हुए। उस समय असम अखिल असम छात्र संघ द्वारा छे़डे गये घुसपैठ-विरोधी आंदोलन के ज्वालामुखी के मुख पर बैठा था। मणिपुर अलगाववादी शक्तियाें के विद्रोहरूपी अंध़ड में फँसा हुआ था। इन सम्मेलनाें में समग्र रूप से २,००,००० से भी अधिक प्रतिनिधियाें ने भाग लिया। वे दूर के भी थे, पास के भी। उनमें से हजाराें गहन अन्तः स्थ पर्वतीय क्षेत्राें से जाति, जनजाति और भाषा के अति पुरातन मतभेद भुलाकर वहाँ आये थे। डिबू्रग़ढ में धुबरी और सिल्वर सम्मेलनाें में एक नया उद्घोष चलाया गया ‘न हिन्दुर्विदेशी भवेत् अर्थात इस देश में कोई भी हिन्दू विदेशी नहीं है। यह मूल असमवासियाें और असमवादी बंगालियाें के बीच चल रहे आपसी अविश्वास और द्वेष को कुछ कम करने में सहायक हुआ।
केरल में
सन् १९८२ में एर्नाकुलम में विशाल हिन्दू सम्मेलन में सभी जातियाें और वगर्ाें के ५ लाख हिन्दुओं ने भाग लिया। केरल के ६५ सामाजिक-धार्मिक संगठनाें ने एकजुट होकर इस महासम्मेलन को सफल बनाया। अपने सभी मतभेदाें को भुलाकर वे एक विराट् हिन्दू पुरूष के रूप में उठ ख़डे हुए। इस विशाल जन-सम्मेलन के बाद ५०० विभिन्न हिन्दू-संगठनाें के प्रतिनिधियाें का सम्मेलन स्वामी चिन्मयानंद के मार्गदर्शन में हुआ। इसमें आगामी कार्यव्रÀम को अंतिम रूप दिया गया।
संघ और उसके सहयोगी संगठनाें के आह्वान के प्रति हिन्दू युवकाें का ब़ढता हुआ आकर्षण जनवरी, १९९१ में त्रिसूर में आयोजित २ लाख युवकों के महासम्मेलन से प्रकट हुआ। इसका आयोजन विद्यार्थी परिषद् और भारतीय युवा मोर्चा ने संयुक्त रूप से किया था। उत्साही लेकिन अनुशासित युवा शक्ति संसद्- सदस्या सुश्री उमा भारती, विद्यार्थी परिषद् के श्री बाल आपटे, तथा श्री. पी. परमेश्वरन् की वक्तÀता को मंत्रमुग्ध होकर सुनती रही। अगले दिन के विशेष सत्र में भाग लेने वाले २,००० प्रतिनिधियाें को नगर में ही १२०० घराें में ठहराया गया।
दिसम्बर, १९९६ में तत्कालीन
सरसंघाचालक प्रो. राजेन्द्र सिंह के आगमन के समय ऐसा ही एक और अवसर आया। १५,००० स्वयंसेवकाें द्वारा पूरे गणवेश में पथ-संचलन के पीछे इतनी ही संख्या में बहिनें और अवसर आया। १५,००० स्वयंसेवकाें द्वारा पूरे गणवेश में पथ-संचलन के पीछे इतनी ही संख्या में बहिनें और माताएँ थीं तथा उनके पीछे चल रहे नवयुवकाें की संख्या भी इतनी ही थी। रामकृष्ण आश्रम के स्वामी मÀदानंद, वनवासी कल्याण आश्रम के अध्यक्ष श्री जगदेवराव उराँव, काल्डियन सीरियाई चर्च के बिशप मार अप्रÀेम तथा मुंबई के प्रमुख पत्रकार मुजपफर हुसैन के भाषणाें ने हिन्दुत्व की सहज सर्वसमावेशक शक्ति को उजागर कर दिया।
बिहार में
उत्थान की यह प्रबल लहर उत्तर को परिप्लावित करती हुई नवम्बर, १९८२ में पटना पहुँची। महाबोधि सोसाइटी के भिक्षु ज्ञान जगत् के शब्दाें में, लगता है जैसे हिन्दू पुनर्जागरण के एक नये युग का सूत्रपात करने के लिए मानवता का सागर ही उम़ड आया है। इसमें प़डोसी देश नेपाल के हिन्दुओं समेत सभी मताें, जातियाें और संज्ञाओं के हिन्दू आ मिले थे।
गुरू गोविंद सिंह की जन्म-स्थली में निर्मित प्रसिद्ध गुरूद्वारा तख्त हरिमंदिर (पटना साहिब) के महामंत्री सरदार हरभजन सिंह सचदेव ने कहा कि गुरू नानक का जन्म हिन्दू धर्म के सुधार के लिए हुआ था। उन्हाेंने स्मरण कराया कि जब काश्मीरी पंडित बलात् धर्मान्तरण के द्वारा मुसलमान बनाये जाने के विरूद्ध सहायता की गुहार करने गुरू तेगबहादुर के पास पहुँचे तो किस प्रकार उन्हाेंने असीम त्याग किया।
संथाली नेता शिव मुरमू ने कहा कि संथाल परगना में हिन्दू धर्म छो़डकर ईसाई मत ग्रहण करने वालाें को दी गयी सभी विशेष सुविधाएँ वापस ले ली जायें।
जैन साध्वी चंदना जी ने कहाः हिन्दू दर्शन वसुधैव कुटुम्बकम् वाला दर्शन है और भारत में रहने वाला हर व्यक्ति हिन्दू है।
अंडमान द्वीप-समूह में
शीघ्र ही यह लहर सुदूर अंडमान द्वीप-समूह में भी पहुँच गयी। अप्रैल, १९८३ में पोर्ट ब्लेयर में जो हिन्दू सम्मेलन हुआ, उसकी विशेषता यह थी कि उसमें भारी संख्या में स्थानीय वनवासी नर-नारियाें ने भाग लिया। अनेक धर्माध्यक्षाें के अतिरिक्त उसमें अंडमान-निकोबार के शिक्षा-निदेशक सोमदत्त दीक्षित और संसद-सदस्य मनोरंजन भक्त भी उपस्थित थे। इस प्रकार यह बहुमुखी चुनौतियाें का सामना करने के लिए राष्ट्र के संकल्प का अनोखा उदाहरण बन गया।
कर्नाटक में
दिसम्बर, १९८३ में उजिरे धर्मस्थल में विश्व हिन्दू परिषद् ने कर्नाटक के त्रिदिवसीय प्रान्तीय हिन्दू सम्मेलन का आयोजन किया। उसकी स्वागत समिति के अध्यक्ष थे धर्मशाला के वीरेन्द्र हेग़डे और उसके उद्घाटनकर्ता थे विश्व हिन्दू परिषद् के अध्यक्ष महाराणा भगवत सिंह। मेवा़ड सम्मेलन में ५० हजार से भी अधिक प्रतिनिधियाें ने भाग लिया। प्रमुख कन्ऩड-दैनिकाें ने उसे हिन्दू-महासागर बताया। वहाँ पेजावर मठ, उडुपी के स्वामीजी श्री विश्वेश तीर्थ ने दो नये मंत्राें की दीक्षा दी। मंत्र थेः मम दीक्षा हिन्दू रक्षा (मेरा ध्येय हिन्दू रक्षा) और मम मंत्रः समानता (समानता मेरा आदर्श)। मद्रास के द हिन्दू (२३ दिसम्बर, १९८३) ने इस ऐतिहासिक सम्मेलन की उपलब्धि को संक्षेप में इस प्रकार प्रस्तुत कियाः उजिरे सम्मेलन की महत्वपूर्ण उपलब्धि यह थी कि हिन्दू धर्म- मठाें के लगभग १७० अधिपतियाें ने सर्वसम्मति से अस्फश्यता के उन्मूलन और हिन्दू एकता के लिए संघर्ष का आह्वान किया। उनमें से अनेक ने जातिभेद की निंदा की।
आन्ध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में
(अस्सी के दशक के मध्य में) इसी व्रÀम में अपेक्षाकृत नये दो विशाल प्रांतीय हिन्दू सम्मेलन हुए। एक तो आंध्रप्रदेश में तिरूपति में हुआ, जिसमें ४० हजार प्रतिनिधियाें ने भाग लिया, दूसरा विदर्भ प्रदेश को छो़डकर शेष महाराष्ट्र का अलन्दी में हुआ। वहाँ तो संख्या डे़ढ लाख से भी ऊपर थी। उल्लेखनीय है कि दोनाें स्थानाें पर जाने-माने संन्यासियाें ने हिन्दुओं को जताया कि वे मत-पत्र की शक्ति के निर्णायक महत्व को समझें। उन्हाेंने कहा कि वही उन्हें उनके वैध अधिकार दिला सकता है और जहाँ तिरूपति में स्वामी चिन्मयानंद ने हिन्दू वोट बैंक की स्थापना का आह्वान किया, वहाँ अलंदी में वारकरी सम्प्रदाय के महान् वैष्णव संत श्री धाेंदू महाराज ने हिन्दुओं को सतर्कता से मतदान करने का परामर्श दिया।
जम्मू-काश्मीर में
काश्मीर घाटी में स्वयंसेवकाें ने ब़डी समझबूझ का परिचय दिया। उन्हाेंने मार्च, १९८८ में निश्चय किया कि महाशिवरात्रि के पावन पर्व पर श्रीभट्ट की पावन स्मÀति में भी श्रद्धा-सुमन अर्पित किये जायें। श्रीभट्ट के प्रति काश्मीरी हिन्दू और मुसलमान-दोनाें ही समान श्रद्धा रखते हैं। सदियाें पहले वैद्य श्रीभट्ट ने काश्मीर के सुल्तान जैबदीन के पुराने रोग को ठीक कर दिया था। सुल्तान की इच्छा थी श्री भट्ट को समुचित पुरस्कार दिया जाये। पुरस्कार के बदले में श्री भट्ट ने सुल्तान से प्रार्थना की कि जिन काश्मीरी हिन्दुओं को उसने घाटी से बाहर निकाल दिया था, उन्हें फिर से घाटी में बसने की अनुमति दी जाये।