बदलता सिनेमा इसका इतिहास और निहितार्थ

आरंभिक भारत के निर्माण में एक तरफ जहाँ गांधी और नेहरू एक दूसरे से सहमति का विशाल क्षेत्र निर्मित करते थे वहीं दूसरी तरफ आजादी के बाद एक ऐसा विषय भी आया जहाँ दोनों के विचारों में भिन्नता थी। यह द्वंद सिनेमा में भी दिखता है।

वर्तमान में सिनेमा में जो परिवर्तन आ रहे हैं वो अपने समय से सुसंगत ही हैं। अपने समय को व्यक्त करने की सिनेमाई इच्छा ही कश्मीरी फाइल्स और आरआरआर जैसी फिल्मों में व्यक्त हो रही है।

सिनेमा को अक्सर ही राजनीति से अलग एक सांस्कृतिक निर्मिति के रूप में देखा जाता है लेकिन सच्चाई यह है कि यह गहरे तौर पर राजनीति से प्रेरित और संचालित होता है। वर्तमान संदर्भ में देखें तो जिस किस्म का राजनीतिक परिवेश है, सिनेमा का व्याकरण भी उसी अनुरूप रूपांतरित हो रहा है। हिंदू विषय से सायास दूरी की हिचक टूटी है और ऐसे विषयों पर फिल्में बनने लगी हैं जिन्हें पहले सांप्रदायिक तक मान लिया जाता था। प्रस्थान बिंदु के रूप में कश्मीर फाइल्स और आरआरआर जैसी फिल्मों को रख लेते हैं। चूँकि मैं एक शोधार्थी हूँ इसलिये मेरा मूल जोर इस सैद्धांतिकी पर है कि सिनेमा और राजनीति आपस में किस प्रकार से जुड़े होते हैं। वर्तमान की स्थिति अपने आप ही स्पष्ट हो जाएगी।

दरअसल, अपनी विशिष्ट दृश्य प्रभाव के कारण सिनेमा संप्रेषण के अन्य किसी भी माध्यम से कहीं अधिक विस्तृत और प्रभावशाली होता है। खासकर, आम जनमानस के विचारों को प्रभावित करने में इसका कोई विकल्प नहीं है। वस्तुतः संवाद प्रयोग और उसको पुष्ट करते दृश्य प्रभाव लंबे समय तक दर्शकों के मन में गहरी छाप छोडत़ा है और निरंतर यही प्रक्रिया दोहराई जाए तो किसी विषय के प्रति कोई छवि निर्मित की जा सकती है। यही वजह है कि सिनेमा का उपयोग प्रभाव उत्पन्न कर सकने वाले एक उपकरण के रूप में किया जाने लगा। जाहिर है कि राजनीति इससे और यह राजनीति से प्रभावित होगी ही। वर्तमान इसका अपवाद क्यों हो?

वस्तुतः एक राष्ट्र के रूप में हम कौन हैं? की पडत़ाल हमेशा से विवाद और जिज्ञासा का विषय रहा है। राज्य से लेकर समाज तथा फिल्मकार से लेकर बौद्धिक वर्ग सब अपने अपने तरीके से इसकी खोज करते हैं। कई बार ये सभी कुछ भिन्नताओं के साथ वृहद रूप से एकता प्रदर्शित करते हैं। इसलिए ही हम देखते हैं कि इस हम की खोज में सिनेमा बहुधा राज्य की परियोजना के साथ सहयुग्मित हो जाता है। अब अगर एकदम शुरुआत से देखें तो यद्यपि भारत ने  आजादी के बाद स्वयं को एक सेकुलर राज्य के रूप में स्थापित किया किंतु यह भी सच है कि इसका एक हिस्सा धर्म के नाम पर अलग हुआ था। इसलिए राज्य और समाज दोनों के लिए इस भावना को मजबूत करना था। साथ ही पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू राष्ट्र निर्माण की योजना को समाजवादी तरीके से लागू करना चाहते थे। उस दौर के सिनेमा में राज्य के प्रयासों की छाप स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। वस्तुतः सिनेमा इस राष्ट्रवादी परियोजना का प्रभावी ढंग से प्रदर्शन कर रहा था। इतना ही नहीं स्वतंत्रता के शुरुआती तीन दशकों में राज्य निर्माण की  सांस्कृतिक परिघटना सिनेमा के भीतर गरीबी का उत्सव मनाना, वर्ग संघर्ष को तरजीह देना, संपन्नशील वर्ग को सामाजिक बुराइयों का दोषी बताने जैसे रूपकों के माध्यम से व्यक्त हो रहा था। साथ ही यह वही दौर था जब राष्ट्रीय आंदोलन के आदर्शों का भी प्रस्तुतीकरण हो रहा था। एक आम धारणा है कि १९५० और १९६० के दशकों में हिंदी सिनेमा अपने स्वर्णिम काल से गुजर रही थी।

आरंभिक भारत के निर्माण में एक तरफ जहाँ गांधी और नेहरू एक दूसरे से सहमति का विशाल क्षेत्र निर्मित करते थे वहीं दूसरी तरफ आजादी के बाद एक ऐसा विषय भी आया जहाँ दोनों के विचारों में भिन्नता थी। यह द्वंद सिनेमा में भी दिखता है। दरअसल, नेहरू राष्ट्र निर्माण में शहरों का विकास अपरिहार्य मानते थे, वहीं गांधी गांवों के प्रति अधिक आकर्षित थे। चार्ली चैप्लिन जैसा महान फिल्मकार गांधी की प्रेरणा से मॉडर्न टाइम्स रचता है जिसमें आधुनिक सभ्यता की मशीनी निर्भरता पर करारा व्यंग्य है। गांधी के सामने स्पष्ट था कि उपनिवेशवाद को उसके आधुनिक दुर्ग शहर में ही परास्त करना होगा। लेकिन, उनके लिए जीत का अर्थ अंग्रेजों के खाली शहरों में बस जाना नहीं था। उनके विचार से भारतवासियों के लिए आजादी का मतलब था शहर को अस्वीकार करना और भारत की चिरंतन सभ्यतामूलक शक्तियों को एक बार फिर हासिल करने के लिए गांव के अभयारण्य में लौट जाना चाहिए। दूसरी तरफ नेहरू के नेतृत्व में भारत आधुनिक सभ्यता को अपनाता चला गया।अपनाने की यह प्रक्रिया सिनेमा में चली इसलिए आधुनिक सभ्यता के क्षेत्र शहरों के  प्रति सिनेमा का मोह साफ तौर पर दिखता है। प्रारंभिक दौर के सिनेमा में शहर बदलाव के केंद्र और उम्मीद की किरण के तौर पर दिखता है।

जागते रहो, प्यासा, गाइड, अब दिल्ली दूर नहीं जैसे कई फिल्में उस दौर में बनीं जिसके केंद्र में शहर था। हालाँकि, यहाँ इस बात को भी रेखांकित करने की जरूरत है कि एक तरफ जहाँ शहर उम्मीद के प्रतीक के रूप में उभरता वहीं दूसरी तरफ शहर में एक खलनायक की छवि भी उभरती है। उदाहरण के लिए जागते रहे में एक आधुनिक शहर कलकत्ता में गांव से आए व्यक्ति को अपनी प्यास बुझाने के लिए पूरी रात मशक्कत करनी पडत़ी है। और इसी एक रात में यह भी दिखता है कि यह आधुनिक शहर जितनी उन्नति का उजाला दिखाता है, अपराध और निराशा की तहें भी यहाँ उतनी ही गहरी हैं। इसी प्रकार गाइड में जेल से छूटकर नायक गांव की ओर ही जाता है। गुरूदत्त की प्यासा याद करें तो ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है के साथ आधुनिक व्यवस्था के प्रतीक शहर के प्रति एक वितृष्णा का भाव। यह निश्चित नहीं है कि नायक कौन सी दुनिया चाहता है पर नायक शहर नहीं चाहता। इसके अतिरिक्त भले ही सिनेमा का केंद्र शहर रहा किंतु अधिकांश नायक शहर का बाशिंदा न होकर गांव से आया व्यक्ति होता था। राजकपूर की फिल्मों में तो गांव छूटने का मोह स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। अर्थात्‌ भले ही शहर को भविष्य के रूप में देखा जा रहा था किंतु पृष्ठभूमि में गांव ही था। इस प्रकार रूपहले पर्दे पर गांव शहर के द्वंद के बीच बनते राज्य निर्माण को साफतौर पर देखा जा सकता है।

शहर-गांव के द्वंद्व के इतर राज्य निर्माण सत्ता के प्रति सामाजिक वैधता को प्राप्त करने की दिशा में भी हो रहा था। यह ऐतिहासिक प्रक्रिया एकतरफ चुनी हुई सरकार के प्रति जनआकांक्षा के रूप में विकसित हो रही थी तो साथ ही इसका स्वरूप सेकुलर था। यह सेकुलर स्वरूप राजसत्ता का धर्म के ऊपर वर्चस्व के रूप में विकसित हो रहा था। अब दिल्ली दूर नहीं रूपहले पर्दे पर ऐसा ही रूपक रचता है, जब आधुनिक राष्ट्र राज्य के प्रतीक नेहरू और इस सत्ता का केंद्र दिल्ली आम जनता की उम्मीदों का अंतिम केंद्र बन जाता है। पंडित नेहरू जी को कौन नहीं जानता। वो हम सबके माई बाप हैं। कहूंगा कि आप जैसे इंसाफ के देवता के होते हुए आपके एक बच्चे के साथ नाइंसाफी हो रही है। यहाँ आधुनिक राष्ट्र राज्य अब इंसाफ का देवता है। इस प्रकार राजनीतिक सत्ता के प्रति सामाजिक निष्ठा का आरोपण सिनेमा में हो रहा था। वस्तुतः यह नेहरू के राष्ट्र का ही रूपांतरण था।

राष्ट्र निर्माण के उस दौर में धर्म और आस्था के प्रश्न से भी जूझना था। नेहरूवादी राष्ट्र राज्य सेकुलर मॉडल में विकसित हो रहा था किंतु वह धर्म की समाप्ति का भी पक्षधर भी नहीं था। आस्था के मामले में संवैधानिक मान्यता भी यही थी। इस संवैधानिक मान्यता से इतर देखें तो तत्कालीन समाज अत्यधिक धार्मिक था तथा राज सत्ता को इससे सामंजस्य स्थापित करना था। सिनेमा में भी यह सामंजस्य गाइड जैसी अनुकृति के माध्यम से पूरा हो रहा था। शहर से आया और आधुनिक शिक्षा प्राप्त राजू गांव का समुच्चय विश्वास जो आस्था के रूप में घनीभूत होता है का प्रतिनिधित्व करता है। आधुनिकता की तर्क प्रणाली और धार्मिकता की आस्था के द्वंद्व के निष्कर्ष के रूप में जब नायक का गांव बसता है तो दरअसल राज्य निर्माण के उसी सामंजस्य की परियोजना पूरी होती है। आजादी के शुरूआती पांच दशक का सिनेमा काफी हद तक आदर्शवाद से प्रेरित रहा। इसके बाद का समय विशेषकर साठ के दशक के अंत से यह प्रवृत्ति कम होने लगती है। राजनीतिक प्रणाली से भी नेहरूवादी आदर्श कम हो रहे थे तथा सत्ता संरचना नई किस्म की बुराइयों से ग्रस्त होता है। यह वही दौर था जब सामाजिक असंतोष से नक्सलबाड़ी जैसा विप्लव देखने को मिलता है और इसका प्रभाव सिनेमा पर भी दिखता है। एंग्री यंगमैन वाले नायक का पर्दे पर आगमन होता है जो अक्सर कानूनी दायरे से इतर न्याय करता है। यह दौर एक यथार्थ कैरेक्टर का निर्माण करता है। फिर देश आपातकाल को झेलता है।

तो वर्तमान में सिनेमा में जो परिवर्तन आ रहे हैं वो अपने समय से सुसंगत ही हैं। अपने समय को व्यक्त करने की सिनेमाई इच्छा ही कश्मीरी फाइल्स और आरआरआर जैसी फिल्मों में व्यक्त हो रही है। यद्यपि सिनेमा की यह राजनीति भी आलोचना से परे नहीं है लेकिन इतने विस्तार से सिनेमा के ऐतिहासिक विकासक्रम को प्रस्तुत करने का उद्देश्य भी यही था कि इसकी स्वाभाविकता को ठीक से समझ लिया जाए। हालाँकि बदलाव के हिसाब से देखें तो शुरुआत भर है। यह देखना दिलचस्प होगा कि भारतीय सिनेमा आने वाले समय में किस तरह परिवर्तित होती है।

(लेखक इतिहास के शोधार्थी हैं)

 

 

अभ्युदय वात्सल्यम डेस्क