हिंदुत्व और योगी का सुशासन मॉडल

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राजनीतिक संस्कार की बात करें तो योगी आदित्यनाथ अपने हिंदू पहचान को लेकर न केवल अत्यधिक मुखर हैं बल्कि नीतिगत स्तर पर भी इसे बरतने के हिमायती हैं। सबसे पहले तो उन्होंने मुस्लिम तुष्टीकरण वाली धारा से शासन को अलग किया और केवल नागरिक को इकाई मानकर प्रशासन चलाया। साथ ही इससे आगे बढव़र उन सांस्कृतिक प्रतीकों को भी शासन व्यवस्था के साथ जोड़ दिया जिनसे अब तक बचा जा रहा था।

लोकतांत्रिक उदारवादी व्यवस्था में सेकुलरवाद का उपयोग धर्म का राजनीति से अलगाव के रूप में कम तथा राष्ट्रीय अस्मिता को बहुसंख्यक सांस्कृतिक निरंतरता से अलगाने में अधिक हुआ।

योगी आदित्यनाथ ने सत्ता संभालने के साथ ही अपराधियों के प्रति जीरो टॉलरेंस नीति अपनाने का आदेश जारी किया था। आखिर ये बदला हुआ नेतृत्व और दृढ़ इच्छाशक्ति का परिणाम ही है कि जो संस्था कल तक बाहुबलियों की जी हुजूरी में लगा था वही आज उन माफियाओं के लिए खौफ का पर्याय बन चुका है।

योगी के हिंदुत्व मॉडल पर तो खूब चर्चा होती है लेकिन उनके सुशासन पक्ष पर कम बात होती है जबकि जनता के बीच वो इन दोनों ही वजहों से लोकप्रिय है।

तमाम अटकलों और कयासों के बाद योगी आदित्यनाथ ने दोबारा उत्तर प्रदेश की जनता का दिल जीत लिया है। यह एक ऐतिहासिक बात है। ऐतिहासिक इस संदर्भ में कि बीते कई दशकों के बाद उत्तर प्रदेश में कोई मुख्यमंत्री लगातार दूसरी बार शासन में लौट पाया है और इस संदर्भ में भी कि योगी ने हिंदुत्व और सुशासन के जिस युग्म के सहारे स्वयं को प्रोजेक्ट किया वो काफी सफल रहा। निश्चित ही यह राष्ट्रीय राजनीति को नई दिशा देने वाला होगा। इन दोनों पहलुओं – हिंदुत्व और सुशासन- को योगी के विशेष संदर्भ में देखने की आवश्यकता है।

हिंदुत्व और योगी

राष्ट्र और राष्ट्रवाद को लेकर अकादमिक बहसें जितनी सघन रही हैं, उतना ही जटिल इसका राजनीतिक अनुप्रयोग भी रहा है। वस्तुतः यह कहना चाहिए कि राष्ट्र और राष्ट्रवाद के सहारे हम कौन की खोज बौद्धिक और राजनीतिज्ञ दोनों का प्रिय कार्य रहा है। हम कौन हैं के विचार से ही राजनीति का सांस्कृतिक क्षेत्र निर्धारित होता है। भारतीय राजनीति का उदाहरण देखें तो यह मोटे तौर पर दो भागों में बँटी नजर आती है। एक तरफ कांग्रेस, सपा व अन्य दल हैं जो राष्ट्र की पहचान के लिए लगभग एक जैसे उपकरणों का इस्तेमाल करते हैं, तो दूसरी तरफ भाजपा जैसे दल हैं जिनके लिए राष्ट्र अलग अर्थ रखता है। इन वैचारिक अंतरों से ही राजनीतिक मुद्दों की भिन्नता भी तय होती रही है। तो मूल सवाल है कि यह अंतर क्या है?

अंतर के कई बिंदु हैं लेकिन इन सबके मूल में अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक संस्कृति का द्वैत है, जिसे सेकुलरवाद के नाम पर संचालित किया जाता रहा है। पहली श्रेणी यानी कांग्रेस व सपा की बात करें तो अपने राजनीतिक प्रयोग में ये बहुसंख्यक यानी हिंदुओं के धार्मिक मुद्दों को एक सायास दूरी से बरतते रहे और अल्पसंख्यक विशेषकर मुसलमानों से सायास निकटता स्थापित करते दिखे। यह सरकारी नीतियों और राजनीतिक मुहावरों, दोनों माध्यमों से होता रहा। वस्तुतः, अल्पसंख्यक विशेषकर मुस्लिम वोट बैंक की गोलबंदी इसी विचार के इर्द-गिर्द हुई। इतना ही नहीं सेकुलरवाद को लेकर जिस तरह की बौद्धिक धारणाएं निर्मित हुर्इं, उसमें एक तरफ तो अल्पसंख्यकों के नितांत धार्मिक मसलों को राज्य के संरक्षण से सुरक्षित किया गया तो दूसरी तरफ बहुसंख्यक जनता से न केवल धार्मिक रूप से तटस्थ रहने की अपेक्षा की गई बल्कि उनके जीवन से धर्म का महत्व कम करने की भी कोशिश की गई। यह अनायास नहीं है कि हिंदू संस्कृति के हर प्रतीकों को सेकुलरवाद के विरुद्ध देखने की चेष्टा की गई तथा इनके आचारों-विचारों को पोंगापंथी का नाम देकर उपहास

उड़ाया गया। दूसरी तरह इन्हीं प्रतिमानों पर अल्पसंख्यक विशेषतः इस्लाम को अपनी धार्मिक अस्मिता को मजबूत करने के लिए प्रोत्साहित किया गया और ऐसे हर प्रोत्साहन को सेकुलरवाद के नैतिक आवरण से ढंका गया। इसका परिणाम यह हुआ कि लोकतांत्रिक उदारवादी व्यवस्था में सेकुलरवाद का उपयोग धर्म का राजनीति से अलगाव के रूप में कम तथा राष्ट्रीय अस्मिता को बहुसंख्यक सांस्कृतिक निरंतरता से अलगाने में अधिक हुआ।

दूसरी तरफ की राजनीति को एक व्यक्ति के माध्यम से विश्लेषित करने की कोशिश करें तो वो हैं-उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ। योगी आदित्यनाथ इस संदर्भ में अपनी पार्टी भाजपा से भी कहीं अधिक स्पष्टवादी हैं। राजनीतिक संस्कार की बात करें तो योगी अपने हिंदू पहचान को लेकर न केवल अत्यधिक मुखर हैं बल्कि नीतिगत स्तर पर भी इसे बरतने के हिमायती हैं। सबसे पहले तो उन्होंने मुस्लिम तुष्टीकरण वाली धारा से शासन को अलग किया और केवल नागरिक को इकाई मानकर प्रशासन चलाया। साथ ही इससे आगे बढव़र उन सांस्कृतिक प्रतीकों को भी शासन व्यवस्था के साथ जोड़ दिया जिनसे अब तक बचा जा रहा था। इस संदर्भ में काशी कॉरीडोर का निर्माण, अयोध्या में राममंदिर निर्माण में सक्रियता और इसी अनुरूप शहरी विकास का नियोजन, शहरों/ जगहों के नाम परिवर्तन तथा धार्मिक स्थलों को केंद्र में रखकर अवसंरचना विकास जैसी बातें इस बात को पुष्ट करने के लिए पर्याप्त हैं कि योगी आदित्यनाथ ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रति अपनी वैचारिकी को ईमानदारी से निभाया है। राष्ट्रवाद का यह स्वरूप अच्छा है या बुरा यह विवेचना का अलग प्रश्न हो सकता है किंतु इतना तो तय है कि योगी ने सरकार का नेतृत्व करते हुए इसे निभाया।

सार रूप में कहें तो योगी उन नेताओं में हैं जिन्होंने भारतीय सेकुलरवाद का चितेरा होने के लोभ का संवरण किया और इसलिए वो दारा शिकोह को किनारे कर औरंगजेब की परंपरा का महिमामंडन नहीं करते, बल्कि वो खुलकर उसके धार्मिक उन्माद को राजनीतिक मजबूरी की आड़ में नैतिक साबित करने वालों के विरुद्ध बोलते हैं। वो राजनीति की मुख्यधारा के चलन को नकारते हैं और शिवाजी जैसे व्यक्तित्व को सांप्रदायिक सिद्ध करने की कोशिश का प्रतिकार करते हैं। इतना ही नहीं जब राष्ट्रगीत “वंदे मातरम” को गाने से भी सिर्फ इसलिए इंकार कर दिया जाता हो क्योंकि इसमें हिंदू भाव है और राष्ट्रगान के सम्मान में खड़े होने को भी हिंदूवादी भावना के नजरिये से देखा जाता हो, वैसे में योगी आदित्यनाथ इन प्रतीकों के प्रति संपूर्ण श्रद्धा दिखाते हैं। ये उदाहरण साफ तौर पर इंगित करते हैं कि कैसे सेकुलरवाद का इस्तेमाल सार्वजनिक जीवन से हिंदू प्रतीकों को शिथिल करने के लिए किया जा रहा है। अर्थात्‌ सेकुलर होने की अनिवार्य शर्त यह मान ली गई है कि वो हिंदू परंपरा से मुक्त हो। योगी ने इस प्रकार जिस सेकुलर समाज को रचने की कोशिश की जा रही थी, उसका मुक्त स्वर से विरोध किया। वो इस धारा के उपासक हैं जो मानता है कि रामायण, महाभारत, वेद, उपनिषद ये देश के धार्मिक ग्रंथ नहीं वरन ज्ञान परंपरा के स्रोत हैं। बुद्ध, महावीर, शंकराचार्य धार्मिक उपदेशक नहीं वरन भारतीय मूल्यों के सर्जक हैं। वंदे वातरम और जन-गण्–मन हिंदू गीत नहीं बल्कि राष्ट्रीय एकता के प्रतीक हैं। एक राष्ट्र के रूप भारत हिंदू संस्कृति से रचा बसा है और सेकुलरवाद की ओट लेकर इसे अलगाया नहीं जा सकता। यह अविच्छिन्न है और इसे ऐसा ही रहना चाहिए।

योगी और सुशासन

एक दिलचस्प बिंदु यह भी है कि योगी सरकार की कानून व्यवस्था के प्रति रवैये को अक्सर कटघरे में खड़ा किया जाता है। बुल्डोजर प्रतीक को ही लें तो कहा जाता है कि सरकार कुछ अधिक ही सख्ती से पेश आ रही है और यह सामान्य चलन नहीं रहा है। गौर से देखें तो योगी सरकार की यह नीति भी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के दायरे से ही निकलती प्रतीत होती है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद न केवल अपने प्रतीकों के प्रति सजगता का आग्रही होता है बल्कि वह राष्ट्र और समुदाय की सुरक्षा के प्रति भी उतनी ही निष्ठावान होने की अपेक्षा करता है। इसलिए बहुत स्वाभाविक है कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नायक अक्सर इस मामले में कठोर दिखाई देते हैं और ऐसा ही योगी आदित्यनाथ के साथ भी है। कानून व्यवस्था को लेकर अन्य उपाय भी इसका ही विस्तार है।

जिस प्रदेश में बाहुबल के राजनीतिक संस्थानीकरण की शुरुआत हुई हो वहाँ कानून व्यवस्था के मायने कैसे होते होंगे इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। लेकिन, योगी आदित्यनाथ ने सत्ता संभालने के साथ ही अपराधियों के प्रति जीरो टॉलरेंस नीति अपनाने का आदेश जारी किया था। आखिर ये बदला हुआ नेतृत्व और दृढ़ इच्छाशक्ति का परिणाम ही है कि जो संस्था कल तक बाहुबलियों की जी-हुजूरी में लगा था वही आज उन माफियाओं के लिए खौफ का पर्याय बन चुका है। यह उसी भावना का विस्तार है कि शासन से अधिक शक्तिशाली कोई नहीं है, सभी को विधि के शासन के अनुकूल ही रहना होगा।

एक आंकड़े के हवाले से देखें तो पूर्ववर्ती सरकार के शासन में प्रदेश में प्रति वर्ष औसतन १५० दंगों का रिकॉर्ड तो देश में अपराध सांख्यिकी की सर्वोच्च संस्था राष्ट्रीय अपराध नियंत्रण ब्यूरो के पास है। यानी प्रत्येक तीसरे दिन उत्तर प्रदेश का आम जनमानस दंगों की आग में झुलसता था और मौका परस्त सरकार सत्ता के नशे में मदहोश जनता को उसके भाग्य के सहारे छोड़ तमाशबीन बनी रहती थी। ऐसे एक दो नहीं बल्कि असंख्य दंगे और साम्प्रदायिक सौहार्द्र बिगाड़ने के मामले घटित हुए,  जिनमें किसी प्रकार के कानूनी कार्रवाई होने के बजाय समाज में अशांति फैलाने वाले असामाजिक तत्वों को उस समय सत्ता के शीर्ष नेतृत्व के स्तर से बचाया गया और इसका आंकड़ा न तो किसी सरकारी संस्था के पास है और न किसी सामाजिक संस्था के पास।

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की भाजपा सरकार सत्ता में आयी तो यह कहा जा सकता है कि तब से उत्तर प्रदेश में एक भी बड़ा दंगा नहीं हुआ है। उत्तर प्रदेश जैसे विशाल आबादी वाले राज्य के लिए यह अति आवश्यक है कि शासन के स्तर से समय-समय पर ऐसी कार्य योजनाएं तैयार की जाए जिससे राज्य में हमेशा विधि व्यवस्था विद्यमान रहे और लोगों का भरोसा भी संविधान और विधि के शासन के प्रति बना रहे। ऐसे ही समाज के सकारात्मक आशाओं और आवश्यताओं के अनुरूप योगी आदित्यनाथ ने सामाजिक महत्व रखने वाले कई योजनाओं की घोषणा की और उसका क्रियान्वयन एक निश्चित समय के अंदर सुनिश्चित किया।

सामाजिक सुरक्षा की भावना को मजबूत करने लिए मुख्यमंत्री रहते हुए योगी ने सर्वप्रथम मिशन शक्तिकरण अभियान की शुरुआत की। गृह विभाग के द्वारा संचालित इस अभियान में उत्तर प्रदेश पुलिस के द्वारा सार्वजनिक स्थानों पर महिला सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए महिला सुरक्षाकर्मियों की समुचित भागीदारी के साथ एंटी रोमियो स्क्वॉयड का गठन किया गया। मिशन शक्तिकरण अभियान के तहत ही प्रदेश के गृह विभाग प्रदेश द्वारा अन्य 24 प्रमुख विभागों को एक साथ जोड़ा गया है। मिशन शक्तिकरण योजना के तहत महिला सुरक्षा के साथ – साथ समाज के कमजोर, पिछड़े तबके एवं अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों से आने वाले लोगों को सम्बल प्रदान कर उन्हें समाज की मुख्यधारा के साथ जोड़कर सरकार के द्वारा संचालित होने वाली प्रत्येक सामाजिक सुरक्षा की योजनाओं का समुचित लाभ उन्हें प्रदान किया जा रहा है। इस अभियान में प्रदेश के सभी ७५ जिलों के तहसीलों, ब्लॉकों एवं पंचायतों को शामिल किया गया है।

इसके अतिरिक्त प्रदेश में अवैध रंगदारी और वसूली से तंग आकर पलायन कर रहे उद्यमियों-व्यापारियों को उनके कारोबार की सुरक्षा की सम्पूर्ण गारंटी सुनिश्चित करने के लिए सरकार के विशेष आदेश से स्पेशल सिक्युरिटी फोर्स (विशेष सुरक्षा बल) का गठन किया गया है, जो प्रदेश में सरकारी, अर्धसरकारी एवं निजी उद्योगों की सुरक्षा की भी जिम्मेदारी संभाल रहे हैं। इस विशेष कार्य बल के गठन से सामान्य पुलिस प्रशासन की चुनौतियाँ भी कम हुई हैं, जो उन्हें रोजमर्रा के कामकाज में उठानी पडत़ी थी। साथ ही पुलिस बल को अतिरिक्त काम के बोझ से मुक्त करने के लिए और उनकी कार्य क्षमता को बनाये रखने के लिए पिछले चार साल में डेढ़ लाख सिपाही के पदों पर भर्तियां हुई हैं।

इन सब के अलावा प्रदेश में ४० नये पुलिस थाने और तकरीबन डेढ़ दर्जन से अधिक पुलिस चौकियों का गठन योगी के नेतृत्व वाली सरकार ने किया है ताकि दूरदराज में रहने वाले लोगों की पहुँच आसानी से पुलिस सहायता केंद्रों तक हो सके। यदि आंकड़ों के लिहाज से भी देखें तो उत्तर प्रदेश में विगत दो तीन साल में गम्भीर अपराधों में कमी भी आई है और समाज के लिए अवांछनीय अपराधियों को उसके अंजाम तक पहुंचाने के लिए पुलिस प्रशासन द्वारा मामलों का त्वरित अन्वेषण कर निर्धारित समय के अंदर ही न्यायालय में चार्जशीट दायर की जा रही है ताकि पीड़ितों को जल्दी न्याय मिल सके।

महिलाओं के विरुद्ध हिंसा की बात करें तो एनसीआरबी की हाल के रिपोर्ट के अनुसार देश भर में जहाँ ३८ लाख मामले दर्ज किए गए, जिसमें उत्तर प्रदेश की भागीदारी मात्र १२ प्रतिशत है, जो पिछले चार वर्षों में सबसे कम है। जबकि, देश की कुल आबादी का २० प्रतिशत हिस्सा यहाँ निवास करता है। महिलाओं के खिलाफ हिंसा में कमी जहाँ पुलिस प्रशासन की सख्ती के कारण आयी है, वहीं प्रदेश सरकार के द्वारा चलाये जा रहे रात्रि सुरक्षा कवच योजना,पिंक बूथ योजना ,पिंक बस योजना, मिशन शक्तिकरण अभियान जैसे सुधारात्मक कार्यक्रमों के फलस्वरूप महिलाओं के प्रति सामान्य नजरिये में सकारात्मक बदलाव आया है।

इसी क्रम में हत्या और किडनैपिंग जैसे गम्भीर अपराधों की बात करें तो दिल्ली स्थित एनसीआरबी के हालिया आंकड़े भी इसकी गवाही देते हैं कि उत्तर प्रदेश धीरे-धीरे अपराधियों के भय से मुक्ति की दिशा में बढ़ रहा है। भारतीय दंड संहिता के अंर्तगत हत्या जैसे कठोर दंड के पूरे देश में तीस हजार के करीब मामले दर्ज किए। गए जिसमें उत्तर प्रदेश में सिर्फ पैंतीस सौ के करीब मामले दर्ज किये गए यानी कुल आंकड़ों का १० प्रतिशत। इतना ही नहीं हत्या के मामले में चार्जशीट फाइल करने की दर की बात करें तो जहाँ राष्ट्रीय औसत ७५ प्रतिशत है वही उत्तर प्रदेश में ७७ प्रतिशत। तो ये आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं कि उत्तर प्रदेश पुलिस की भूमिका अपराधियों के संदर्भ में संरक्षणकर्ता से बदलकर संहारकर्ता की हो चुकी है और ये बदलाव स्वभाविक तौर पर सरकार के बदले नेतृत्व और दृढ़ इच्छाशक्ति की ओर इशारा करते हैं।

इन सभी आँकड़ों को प्रस्तुत करने का उद्देश्य यही है कि योगी के हिंदुत्व मॉडल पर तो खूब चर्चा होती है लेकिन उनके सुशासन पक्ष पर कम बात होती है जबकि जनता के बीच वो इन दोनों ही वजहों से लोकप्रिय है। और ये दोनों ही तत्व एक दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़े हैं।

सन्नी कुमार