एकात्ममानववाद का विचार इस संसार को पं. दीनदयाल उपाध्याय की श्रेष्ठतम देन है। वर्तमान राजनीतिक उठापटक में लिप्त अथवा उसके संदर्भ में विचार करने वाले व्यक्ति को यह भ्रम हो सकता है, कि पंडित जी ने अन्य प्रचलित वादाें अथवा राजनीतिक विचारधाराओं का खंडन करने के लिए एकात्म मानववाद के नाम से एक नवीन वाद अथवा नयी राजनीतिक विचारधारा का प्रतिपादन किया होगा। इसी भाँति यह तथ्य भी सर्वविदित है कि नवीन वाद या नयी राजनीतिक विचारधारा का प्रतिपादन करने वाले व्यक्ति इस अहंभाव से युक्त होते हैं कि उन्हाेंने कुछ नया निर्माण किया है। पश्चिमी जगत में तो यह पद्धति बहुत अधिक प्रचलित है। वहाँ पर यदि कोई विचारक तत्कालीन विचारधारा से थो़डा भी मतभेद रखता है तो अपने आपको एक नवीन वाद का उद्घोषक घोषित कर देता है। किंतु पंडित जी का यह दृष्टिकोण जीवनर्पयंत कभी भी नहीं रहा। भारतीय संस्कृति के एक श्रेष्ठ अनुयायी होने के कारण ऐसा क्षुद्र विचार उनके मन को कभी छू भी न सका। इसी कारण उनकी यह मान्यता थी कि गीता में भगवान् श्रीकृष्ण के कथनानुसार सत्य ज्ञान सनातन काल से चला आ रहा है। देश, काल एवं परिस्थिति के अनुसार उसके व्यक्त स्वरूप में कुछ अन्तर दिखाई दे सकता है, किन्तु उससे कोई नवीन ज्ञान उत्पन्न नहीं होता। अतः पंडित जी ने अपनी सÀजनात्मक शक्ति अथवा भावात्मक दृष्टिकोण का प्रयोग उसी सत्य सनातन ज्ञान को संसार के सम्मुख नवीन रूप में, परिवर्तित परिस्थितियाें के अनुसार रखने में किया। इस प्रकार एकात्म मानववाद का विचार प्रचलित वादाें में विद्यमान न्यूनताओं को दूर कर उन्हें परिपूर्ण बनाने के लिए ही किया गया है, उसे प्रस्तुत करते समय अन्य वादाें या विचारधाराओं का खंडन कर समाज में वैचारिक कटुता को ब़ढाना पंडित जी का कभी भी अभीष्ट न था।
वाद या इज्म क्याें?
इसका नाम वाद या इज्म क्याें रखा गया? वैसे पंडित जी स्वयं वाद के पक्षपाती कभी भी नहीं थे। उनका मत था कि जो सत्य और सनातन है, न तो वह वाद के चौखटे में ठीक बैठेगा और न बदलती हुई परिस्थितियाें का मुकाबला कोई वाद कर सकेगा। दूसरे शब्दाें में वाद या इज्म कभी भी सभी देशाें के लिए और समस्त कालाें के लिए उपयोगी नहीं हो सकता। यही उनकी भावना थी। यही उनकी दृष्टि थी। किंतु आज कुछ लोगाें की आकलन-शक्ति की भी एक सुनिश्चित पद्धति बन गयी है, और वह पद्धति वाद अथवा इज्म की है। अतः सर्व साधारण की सुविधा के लिए ही वाद अथवा इज्म शब्द का प्रयोग पंडित जी ने किया।
किंतु इस संबंध में कोई भ्रम उत्पन्न न होने पाये, इसलिए उनका कहना था कि जिस तरह सामान्य व्यक्ति के लिए निर्गुण या निराकार ब्रह्म पर चित्त को एकाग्र करना कठिन होता है और इसलिए सगुणोपासना का सहारा लिया जाता है और फिर इस सगुणोपासना के माध्यम से साधक के लिए आगे चलकर निर्गुण की साधना भी शक्य हो जाती है, उसी भाँति एकात्म मानववाद पर लोगाें की चित्तकत्तियाँ केन्द्रित हो जाने के बाद वादातीत (घस्तेेहोे) स्थिति पर या वादाें से ऊपर सनातन ज्ञान एवं धर्म पर मन एकाग्र करना भी सामान्य व्यक्ति के लिए सरल हो जायेगा।
वे फिलासफर नहीं, द्रष्टा थे
हमारे पंडित दीनदयाल जी फिलासफर नहीं थे। वाद चलाना फिलासफर का काम होता है, किन्तु पंडित जी के संदर्भ में फिलासफर शब्द का प्रयोग करना उनके प्रति लघुता होगी। वे तो भारतीय मनीषियाें की भाँति द्रष्टा थे और इस कारण उन्हाेंने जो कुछ भी देखा है वह एक दर्शन है। विदेशी भाषा का शब्द फिलासफी उसे व्यक्त करने में सक्षम नहीं है। यह दर्शन कोई नवीन अथवा अपरिचित न होकर इसी भूमि का दर्शन है। इन उपर्युक्त विचाराें को ध्यान में रखना इसलिए आवश्यक है, जिससे आगे चलकर ‘वाद शब्द के कारण हमारी धारणा में ग़डब़ड न होने पाये।
यह आवश्यकता क्याें?
एकात्म मानववाद शक और इसकी कल्पना इस समय प्रस्तुत करने की आवश्यकता क्याें प्रतीत हुई? विशेष रूप से उस समय जबकि आज पश्चिम की ओर से कई वाद या विचार अपने देश में आ रहे हैं, लोकप्रिय हो रहे हैं, और वे अपने आपको प्रगतिशील भी कहते हैं। अनेक व्यक्तियाें का कहना है कि यदि हमारी समस्याओं का हल पश्चिमी वादाें या विचारधाराओं से हो सकता है तो हम अपने मस्तिष्क को कष्ट क्याें दें? यह पश्चिम की विचारधारा है, केवल इसलिए इसको त्याज्य समझा जाये, यह भी ठीक नहीं । ऐसी स्थिति में हमारे लिए यह उचित होगा कि हम पश्चिम के वैचारिक मंच पर जो नाटक पिछले तीन-चार सौ वषर्ाें में हुए हैं, उनका संक्षेप में अवलोकन करें।
पश्चिम का वैचारिक रंगमंच
सर्वप्रथम हम पंथ अथवा रिलीजन का विचार करें। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि जिस समय यूरोपीय रंगमंच पर रिलीजन का यह नाटक आरम्भ हुआ, उसमें सभी व्यवस्थाएँ उसकी केन्द्रानुवर्ती थीं। पोप को केन्द्र बिन्दु मानकर संपूर्ण ईसाई जगत् उसके अन्तर्गत आता था। आगे चलकर पोप की इस केन्द्रानुवर्ती सत्ता के विरूद्ध दो प्रकार का विद्रोह हुआ। रिलीजन के इस दूसरे चरण में प्रथमतः यह भावना प्रखरतम होती गयी कि भक्त और भगवान् के मध्य पोप सरीखा कोई मध्यस्थ नहीं होना चाहिए। फलस्वरूप प्राटेस्टेंट आदि मताें का प्रचार हुआ। द्वितीय, यह भावना बलवती होने लगी कि देश-बाह्य शक्ति का हस्तक्षेप, भले ही वह रिलीजन के क्षेत्र में ही क्याें न हो, हमारे राष्ट्रीय व्यवहार में नहीं होना चाहिए। इस प्रकार राष्ट्रवाद या राष्ट्रीयता (ऱूग्दहीत्गस्) को प्रश्रय मिला। तीसरे चरण में हम देखते हैं कि रिलीजन आदि सब झूठ है, यह अफीम है, मानवीय शक्ति से परे किसी ईश्वरीय शक्ति की बात करना सत्य नहीं, केवल कोरी कल्पना है, जो कुछ भी इस सÀष्टि का आदि-मध्यान्त होगा, वह ईश्वर-रहित भौतिक पदार्थ (शूूी) है, और इस कारण रिलीजन केवल मन की कल्पना है। भौतिक तत्वाें या पदाथर्ाें को ही सÀष्टि का मूल मानने के कारण इस बात पर बल दिया गया कि मस्तिष्क भी भौतिक तत्वाें या पदाथर्ाें की परिष्कृत रचना है। (श्ग्ह् ग ेल्जी-ेूील्मला दह शूूी)। दूसरे शब्दाें में रिलीजन, संस्कृति, आचार-विचार (िंूप्ग्म) आदि का अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं हैं, वरन् जिस प्रकार की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियाँ हाेंगी, उन्हीं का प्रतिबिम्ब रिलीजन, संस्कृति एवं आचार-विचार आदि में दिखाई देगा। इस प्रकार तीसरे चरण में भौतिक तत्व या पदार्थ (शूूी) आधारभूत तत्व बन बैठा और उसने रिलीजन को पूर्णतः निष्कासित कर दिया।
नास्तिकतावाद के विरुद्ध प्रतिक्रिया
यूरोपीय विकास के अगले चरण मंे इस भौतिकवादी नास्तिकवाद के विरुद्ध प्रतिवि्रÀया हुई। अनेक विद्वानाें और विचारकाें ने यह कहना प्रारंभ किया कि मार्क्स के समय में रिलीजन और चर्च की जो विकृत अवस्था थी, उसको देखकर रिलीजन संबंधी उसके विचाराें का कुछ औचित्य भले ही रहा हो, किन्तु उसको सार्वदेशिक मान लेना अनुचित होगा। इसके स्थान पर अलग-अलग देशाें में, अलग-अलग कालखण्डाें में रिलीजन की जो भूमिका रही है, उसके आधार पर उसका पुर्नमूल्यांकन करने पर बल दिया जाने लगा। विचारकाें ने कहना आरंभ किया कि यदि रिलीजन को मानव जीवन का मूलाधार न माना जाये तो भी उसकी स्वतंत्र सत्ता को तो हमें स्वीकार करना ही होगा और यह मानना भूल होगी कि रिलीजन अफीम है अथवा उसका स्वरूप सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियाें के आधार पर ही सुनिश्चित होता है।
मार्क्सवादियाें की मान्यताओं में परिवर्तन
इस विचारधारा के बल पक़डने पर आगे चलकर हमें यह दिखाई देता है कि भौतिकवाद (शूीगत्गस्) के आधार पर ईश्वरीय सत्ता का निषेध करने वाले और रिलीजन को अफीम बताने वाले कार्ल मार्क्स के अनेक शिष्याें ने ही इस मान्यता पर सन्देह करना शुरू कर दिया कि मार्क्स कोरे भौतिकवादी (णल््ा शूीगत्गू) विचारक थे। कार्ल मार्क्स द्वारा सन् १८४२ में व्यक्ति-स्वातंत्र्य और प्रेस स्वातंत्र्य पर तथा सन १८४४ में आर्थिक और दार्शनिक विषयाें पर लिखे गये लेखाें (िंम्दहदस्ग्मत् ीह् झ्प्ग्त्देदज्प्ग्मत् सहलमग्जे) के आधार पर इन शिष्याें ने यह कहना आरंभ किया कि मार्क्स कोरे भौतिकवादी नहीं थे। उनके मतानुसार जिस प्रकार निर्जीव भौतिक पदार्थ अमूर्त विचाराें को प्रभावित करते हैं, उसी प्रकार अमूर्त विचार निर्जीव पदाथर्ाें को भी प्रभावित करते हैं। इसी प्रकार यदि एक ओर सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियाँ रिलीजन, संस्कृति और आचार-विचार के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं तो रिलीजन, संस्कृति और आचार विचार से सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियाँ भी निर्धारित होती हैं, दूसरे शब्दाें में, वे एक-दूसरे को प्रभावित करती हैं (ऊपब् ीम ीह् रीम ल्ज्दहर् ीम्प् दूप)।
चार सौ वषर्ाें का विश्लेषण
इस प्रकार यूरोप के इस ४०० वषर्ाें के इतिहास में हमें क्या दिखाई दिया? व्यक्ति सबसे पहली इकाई है। रंगमंच का पर्दा जब खुलता है तो वहाँ दिखता है कि व्यक्ति का तो कोई अस्तित्व ही नहीं है। वह तो पोप के अन्तर्गत या मोनार्क के अन्तर्गत (अंग्रेजी भाषा के मोनार्क शब्द का किसी भी भारतीय भाषा में कोई पर्यायवाची शब्द नहीं है, सामान्य रीति से समझने के लिए उसे हम निरंकुश शासक या राजा कह सकते हैं) केवल कठपुतली मात्र है, जिसकी अपनी कोई स्वतंत्र इच्छा नहीं होती। अगले चरण में व्यक्ति के व्यक्तित्व का जागरण हुआ और इसीलिए उसे कुचलने वालाें के विरुद्ध विद्रोह की प्रवि्रÀया आरंभ हुई।
इस प्रकार दूसरे चरण में पोप और मोनार्की (निरंकुश राजतंत्र) के विरुद्ध विद्रोह हुआ। इस संघर्ष में पोपशाही का प्रभुत्व समाप्त हुआ और मोनार्की भी समाप्त हो गयी। इसके बाद यह कल्पना हुई कि प्रत्येक व्यक्ति का स्वातंत्र्य अबाधित रहना चाहिए। व्यक्ति-स्वातंत्र्य का आश्वासन देने वाली रचनाएँ जिन्हें संसदीय (पार्लियामेंटरी) या लोकतांत्रिक (अस्दमीूग्म्) कहा जाता है, अस्तित्व में आयीं और यह आनंद भी उत्पन्न हुआ कि इस व्यवस्था के अन्तर्गत व्यक्ति-स्वातंत्र्य सुरक्षित रह सकता है। कालान्तर में इसने शोषण-स्वातंत्र्य को जन्म दिया और लोकतांत्रिक संस्थाओं के अन्तर्गत बलवान निर्बलाें का, धनी निर्धनाें का, बुद्धिमान – निर्बुद्धाें का शोषण करने लगे। इस प्रकार यूरोप में अल्पसंख्यक शोषक और बहुसंख्यक शोषित, ऐसे दो वर्ग दिखाई देने लगे। फलस्वरूप अगले चरण में इस अमानुषिक विषमता के विरुद्ध विद्रोह की भावना प्रबल होने लगी। शोषण के विरोधियाें ने उसे समाप्त करने के लिए शोषण-स्वातंत्र्य तथा उसे सुरक्षित रखने वाले व्यक्ति-स्वातंत्र्य की समाप्ति पर बल दिया। दूसरे शब्दाें में, व्यक्ति के व्यक्तित्व को समाप्त करने की माँग की जाने लगी। इस कार्य को सम्पादित करने के लिए एक ऐसी सर्वग्राही या सर्वसत्ताधारी शक्ति (ऊदूीत्गीीगहगस्) की आवश्यकता प्रतीत हुई, जो राज्य में ही हो सकती है। ऐसे राज्य की प्रस्थापना में, व्यक्ति-स्वातंत्र्य की आ़ड में शोषण-स्वातंत्र्य का संरक्षण करने वाली सभी संस्थाओं का विरोध किया जाने लगा। अब व्रÀांति की आवश्यकता-रक्तमय व्रÀांति की आवश्यकता-अनुभव की जाने लगी, क्याेंकि शोषण की समाप्ति लोकतांत्रिक संस्थाओं द्वारा असंभव प्रतीत हुई। इस प्रकार खूनी व्रÀांति के माध्यम से शोषिताें की तानाशाही स्थापित करने का विचार प्रबल हुआ जिससे चाराें ओर आनंद का साम्राज्य स्थापित हो जाये। संयोगवश इसी आधार पर रूस में खूनी व्रÀांति भी हो गयी। किंतु व्यवहार में दिखाई दिया कि तानाशाही संपूर्ण शोषित जन की नहीं, एक दल की है, उसके कुछ सत्ताधारी व्यक्तियाें की है। समाज ने इस स्थिति को भी इस आशा में सहन कर लिया कि यह संव्रÀमणकालीन स्थिति है, जैसे ही सर्वहारा वर्ग का तानाशाही शासन स्थायित्व प्राप्त कर लेगा, यह अवस्था बदल जायेगी। पर यह आशा पूर्ण नहीं हुई और यह अनुभव किया जाने लगा कि एक व्यक्ति या कुछ व्यक्तियाें की यह तानाशाही स्थायी स्वरूप की है। इसके कारण इसके विरूद्ध विद्रोह की भावना व्यक्ति-व्यक्ति के मन में उस व्यवस्था के अन्तर्गत आज हमें दिखाई दे रही है।
व्यक्ति-स्वातंत्र्य का नाटक
कम्युनिस्ट शासन-व्यवस्था के अन्तर्गत अगले विकासव्रÀम में गुट की तानाशाही के विरूद्ध व्यक्ति-स्वातंत्र्य को स्थापित करने का प्रयास आरंभ हो गया दिखता है। जिन देशाें में कम्युनिस्टाें का प्रत्यक्ष शासन नहीं है, किंतु कम्युनिस्ट पार्टियाँ हैं, वहाँ पार्टी के नेताओं में इस बात को लेकर मतभेद एवं विवाद आरंभ हो गये हैं कि शोषण को समाप्त करने के लिए लोकतांत्रिक संस्थाओं को ही क्याें न माध्यम बनाया जाये। एक प्रभावशाली वर्ग का कहना यह है कि खूनी व्रÀांति का विचार मार्क्स के समय में भले ही सत्य एवं अपरिहार्य रहा हो, किंतु परिवर्तित परिस्थितियाें में संसदीय संस्थाओं का प्रयोग करके भी सर्वहारा वर्ग की तानाशाही स्थापित की जा सकती है। दूसरी ओर उन देशाें में, जहाँ कम्युनिज्म की विचारधारा बिल्कुल भी प्रभावी नहीं है और जहाँ मोनार्की (निरंकुश राजतंत्र) के स्थान पर संसदीय पद्धति और लोकतांत्रिक संस्थाओं का स्वागत व्यक्ति के व्यक्तित्व को सुरक्षित बनाये रखने के लिये किया गया था, वहाँ पर भी लोगाें में इन संस्थाओं के प्रति असंतोष दिखाई दे रहा है। यह वर्ग हमें पूर्ण स्वाधीनता चाहिए का उद्घोष कर पश्चिमी संसदीय लोकतंत्र के अंतर्गत जिस नियंत्रण और अनुशासन को व्यक्ति पर लागू किया जाता है, उसे भी सहन करने के लिए तैयार नहीं है। इस वर्ग की दृष्टि में स्वातंत्र्य और स्वैराचार में कोई अन्तर नहीं है। पश्चिमी जगत् में विद्यमान हिप्पी संप्रदाय इसी कोटि में आता है, जो केवल लोकतांत्रिक संस्थाओं का ही विरोध नहीं है, वरन् सभी प्रकार की व्यवस्थाओं (ध्ीे) का विरोधी है। इस तरह व्यक्ति को केन्द्र-बिन्दु मानकर यह नाटक यूरोपीय एवं पश्चिमी जगत् में विगत तीन-चार सौ वषर्ाें में होता रहा है।
पारिवारिक इकाई के विरूद्ध
विद्रोह
व्यक्ति के बाद अब हम पारिवारिक व्यवस्था का विचार करें, जो एक सर्वमान्य प्रस्थापित तथ्य के रूप में सभी समाजाें में सर्वदा विद्यमान रही है। इसकी अपरिहार्यता को हिंदू धर्मशास्त्राें, कन्पयूशियस, मोहम्मद और ईसाइयत, सभी के द्वारा स्वीकार किया गया है। लेकिन पश्चिमी जगत् में उसके विरुद्ध भी दो दिशाओं से विद्रोह दिखाई दिया। एक ओर कम्युनिस्टाें ने तो यह कहकर पारिवारिक व्यवस्था का विरोध आरंभ किया कि यह कृत्रिम व्यवस्था है। मनुष्य और मानव जाति के बीच परिवार सरीखी किसी श्रंखला या मध्यस्थ की क्या आवश्यकता है? अतः इन्हें तो़डकर कम्यूनाें (ण्दस्स्ल्हो) की स्थापना करो। दूसरी ओर लोकतांत्रिक देशाें में यह भावना बल पक़डने लगी कि पारिवारिक व्यवस्था में प्रत्येक घटक को जिस पारिवारिक अनुशासन का पालन करना प़डता है, उसका पालन क्याें किया जाये? यह तो व्यक्ति-स्वातंत्र्य का विलोम है। अतः संयुक्त परिवार को तो़ड दो। विवाह करके माता-पिता से छुट्टी ले लो। अपना परिवार जितना छोटा होगा, उतना ही अधिक उपभोग किया जा सकेगा और स्वैराचार चल सकेगा।
पुनः संयुक्त परिवार की ओर
किंतु इन दोनाें आन्दोलनाें की खामियाँ शीघ्र ही सामने आने लगीं और हम देखते हैं कि वे सफल नहीं हो सके हैं। सोवियत संघ में कम्यूनाें का प्रयोग विफल सिद्ध हुआ और इसकी प्रतिवि्रÀयास्वरूप पारिवारिक भावना प्रबल होने लगी। कम्युनिस्ट शासन-व्यवस्था में भी अभिभावकत्व (झीाहूप्दद्) और पितÀत्व (इीूपप्दद्) को काूननी मान्यता देने की पुरजोर मांग की जाने लगी, जिसे अन्त में शासन को स्वीकार करना प़डा। इसी भाँति लोकतांत्रित देशाें में-विशेष रूप से अमेरिका में-हिप्पी संप्रदाय आदि के स्वैराचार के विरूद्ध वहाँ के श्रेष्ठ विचारकाें ने यह माँग करना आरंभ कर दिया है कि संयुक्त परिवार प्रणाली अवश्य स्थापित की जानी चाहिए। अन्यथा समाज में स्थिरता न रह सकेगी। यह वैचारिक प्रवाह आज अमेरिका में चाराें ओर दिखाई दे रहा है।
राष्ट्रवाद का विरोध
परिवार के बाद की इकाई राष्ट्र या समाज या राष्ट्रीय समाज की है। पर ऐसा दिखता है कि प्रारंभ में पोपशाही के काल में यूरोप में राष्ट्रवाद या राष्ट्रीयता का जागरण नहीं हुआ है। यह जागरण आगे चलकर पोप के रिलीजन संबंधी हस्तक्षेप और विदेशियाें के साम्राज्यवादी आव्रÀमणाें के विरोध में हुआ। इस प्रकार यूरोप में राष्ट्रवाद या राष्ट्रीयता का प्रतिवि्रÀयावादी स्वरूप सामने आने से इस धारणा को बल मिला कि यदि एक ओर राष्ट्रीयता और पोपशाही एक दूसरे से मेल नहीं खा सकतीं तो दूसरी ओर राष्ट्रीयता और अन्तर्राष्ट्रीयता भी एक-दूसरे की विरोधी हैं।